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मालपा से बुद्धि कैंप

अप्रैल 28, 2011

छतरी झरना और बुद्धि कैंप
(10/6/2010 सातवाँ दिन) गतांक से आगे…

थोड़ी देर में पोनी वाला आया और बोला- ’आइए मैडम बैठ जाइए पोनी पर’ मैंने गुस्सा दिखाते हुए उससे पूछा कि वह कहाँ ग़ायब हो गया था। वह बोला- ’पोनी आगे-आगे भाग आया इसलिए मुझे भी उसके साथ आना पड़ा’ मैंने डांटते हुए कहा – ’मैं बुद्धि कैंप में पहुँचकर तुम्हारी शिकायत करूंगी’। लड़का नया था सो डरा सा होगया बोला ’सॉरी’आगे से ऐसा नहीं होगा’। पोर्टर ने भी उसे डांटा। मैं पोनी पर सवार होकर चल पड़ी।
रास्ता बहुत कठिन था। कभी एक दम उतार तो कभी सीधी चढ़ाई। संतुलन बना-बनाकर आगे बढ़ रहे थे। पोर्टर बिल्कुल साथ चल रहा था और पोनी वाले से अपनी भाषा में बातचीत कर रहा था। आगे जाकर कुछ झोंपड़ी घर दिखायी दिए मैंने पोर्टर से पूछा तो उसने कहा कि यह लमारी गांव है। लमारी मालपा से पांच किमी है।
अभी हम बात करते चल ही रहे थे कि भा.ति.सीमा.पु.ब. के दो जवानों ने अपने चैकपोस्ट से बाहर निकलकर, आगे बढकर मुझसे ’ऊं नमः शिवाय’ कहकर मेरे पोनी वाले से रुकने के लिए कहा। वह रुक गया और मुझे उतार दिया। जवानों ने यहाँ तीर्थ-यात्रियों के लिए चाय का प्रबंध कर रखा था। जो आता जा रहा था चाय पीकर ही जा रहा था। बड़े स्नेह और आदर के साथ वे मुझे कमरे की ओर ले जाने लगे तो बहुत सारे स्थानीय बच्चे मेरे पास भागकर आगए और वह भी ऊं नमः शिवाय कहने लगे। उनकी तुतलाती और हकलाती बोली थकान उतार देने वाली थी। मैंने उन सबको एक-एक दस का नोट दिया। उनमें सबसे छोटा बच्चा बड़ा जिद्दी था उसने अपने से बड़े लड़के से नोट छीन लिया और अपने घर की ओर भाग गया। सिपाही और मैं हंसने लगे। उन्होंने पुनः मुझसे चाय पीने का आग्रह किया, चूंकि मैं बहुत थकी हुयी थी और सफ़र अभी बाक़ी था सो मैं कमरे में प्रवेश कर गयी।
चार-पांच कुर्सी पड़ी थी। छोटे से स्टूल पर चाय और आलू के चिप्स रखे थे। कई जवान वहाँ बैठे हुए थे। बड़े सम्मान के साथ ट्रे में रखकर मुझे चाय सर्व की गयी। पर चाय ठंडी थी। मेरे एक्प्रेशन्स से वह समझ गए और कहने लगे ’यहाँ तापमान कम होने के कारण चाय बहुत जल्दी ठंदी हो जाती है। अभी कई तीर्थयात्री पीकर गए हैं’।
तुरंत चाय गर्म करने के लिए सिपाही चला गया। मैंने वहाँ बैठे सिपाहियों से अपने दल के आगे चले गए यात्रियों के बारे में पूछा। उन्होंने विवरण दिया और बीते कल की यात्रा के विषय में बताने लगे कि कैसे वीना मैसूर बहुत परेशानी से गाला तक पहुँची थीं।
मैंने चाय और चिप्स लिए चलने से पहले उनका आभार प्रकट किया। जाने लगी लगी तो दो सिपाही पोनी पर बिठाने आए।
बाहर मौसम बदल रहा था। बादल घिर रहे थे। जवानों ने मुझे जल्दी पहुँचने, बरसाती बाहर रखने और ठंड से बचने की सलाह दी साथ ही बंसल जी की शिकायत भी की – ’बुजुर्ग से जो तीर्थ यात्री हैं वह कहना नहीं मानते हैं, इतनी ऊंचाई पर भी टीशर्ट में चल रहे थे, बड़ी मुश्किल से उन्हें स्वेटर पहनाया था यहीं। बीमार होने का बहुत डर है।’ मुझे हंसी आगयी मैं बोली- वह हैं हीं मनमर्जी के।’
मैं उन सबको धन्यवाद करते हुर लपककर पोनी पर चढ़ गयी तो जवान आश्चर्य से देखने लगे और बोले आप तो बहुत आस्सानी से चढ गयीं। लगता है घुड़सवारी आती है? 🙂 मैं मुसकरायी और हाथ जोड़ते हुए आगे बढ गयी।
मौसम धीरे-धीरे खराब होने लगा। काले बादल आसमान को घेरे जा रहे थे। रास्ता अभी बहुत था। मैं मस्ती मैं पोनी पर बैठी हुयी थी तभी सहयात्री सुरेश और प्रकाशवीर जाते हुए मिले हमने आपस में ऊं नमः शिवाय कहा और मैं आगे बढ़ गयी। थोड़ा आगे गयी थी कि बायीं ओर पहाड़ों के ऊपर
एक झरना छतरी का आकार लेकर गिरते हुए बरबस आकर्षित कर रहा था। मैं यह जानते हुए भी कि बारिश आने वाली है उसको कैमरे में कैद करने का मोह छोड़ न सकी। फटाफट गर्दन में लटका कैमरा खोला और चित्र लेने लगी इतने में ही मेरा पोर्टर मुझे जल्दी करने को कहने लगा। मैंने जल्दी से कैमरा कवर में रख लिया और आगे बढ़ गयी।
अभी कुछ ही आगे बढ़े होंगे कि तेज मूसलाधार बारिश होने लगी।मैं ने बर्साती सूट का कोत पहन लिया सोचा पाजामा गीला हो भी जाए तो क्या!
पोनी वाला जो धीरे-धीरे पोनी को बढ़ा रहा था ने पोनी रोक दिया। वह एक अन्य रुके खड़े पोनी वाले से बातें करने लगा। पोर्टर ने एक बड़ी चट्टान के नीचे मुझे खड़ाकर लिया और बोला ’पहाड़ों पर बारिश के समय बहुत खतरा होता है, पहाड़ गिर पड़ते हैं’। बादल ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे थे बिजली चमक रही थी। मैं थोड़ा डर से सहम गयी, क
कुछ देर में जब बारिश थम गयी तो हमने पुनः आगे बढना प्रारंभ किया। थोड़ा आगे बढ़े तो बंसल जी हाफ़पैंट और टीशर्ट पहने पूरे भीगे हुए कंपकांपाते हुए चलते नजर आए। मैंने उन्हें और अपने पोनी वाले को रुकने के लिए कहा।। मैं बंसलजी पर चिल्लायी कि वह अकेले क्यों चल रहे थे। वह भीगे हुए और ठंड के कारण बहुत कष्ट महसूस कर रहे थे। बैग से तोलिया निकलवाकर अपने पोर्टर से उनको सुखवाया उनके गीले कपड़े उतरवाकर उनके थैले से सूखे कपड़े पहनवाए।
अपना रैन सूट(टूपीस था कोट मैं पहने थी जो उतार दिया) पहनवाया, स्वयं मैं ने अपना दूसरा बरसाती लोंगकोत पहन लिया।
बंसल जी की हालत पैदल चलने की नहीं थी, मैं उनको अकेला छोड़कर नहीं जाना चहती थी सो साथ चल रहे पोने वाले से बहुत अनुग्रह करके उनको बिठाने के लिए कहा। वह मान नहीं रहे थे क्योंकि वह अन्य सहयात्री त्यागी के हायर किए हुए थे।
बंसलजी को गुस्सा आ रहा था वह उन्हें डांट रहे थे, क्योंकि वह पहले भी उनसे बिठाने के लिए कह चुके थे। मैंने अपनी जिम्मेवारी पर तथा खुद एकस्ट्रा मनी देने का कहकर बंसलजी को पोनी पर बिठवाया और अपने साथ ले चली।
बारिश पुनः आगयी थी। अब मैं पूरी भीग गयी थी। रास्ता पूरी तरह कीचड़ से भर गया था। पहाड़ फिसनले हो रहे थे। पोनी पर चढ़ी मैं बहुत डर रही थी पर बारिश के कारण पानी रास्ते पर तेजी से बहने के कारण न तो पैदल चल सकती थी और न रुक सकती थी। दोनों हाथ से संतुलन बनाए बार-बार पीछे देखती कि बंसलजी आ रहे अहि या नहेऎं? थोड़ा पीछे होने पर ज़ोर से चिल्लाकर साथ आने को कहते हुए बढ़ रही थी। बारिश थी कि और तेज हुए जा रही थी। बार-बार लगता कि अब गिरे कि तब गिरे।
आखिरकार लमारी से चार किमी दूर स्थित बुद्धिकैंप नज़र आने लगा। जैसे-तैसे करके वहाँ पहुँचे।
बुद्धिकैंप थोड़ा नीचे को बना है। प्रवेश में ही कुछ सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं। मैंने पहले बंसल जी को उतरने दिया उसके पश्चात स्वयं उतरी और भागी कैंप की ओर। प्रवेश पर ही एलओ चिंतित खड़े उन सभी यात्रियों की प्रतीक्षा कर रहे थे जो अभी तक नही पहुँचे थे।
मुझे देखते ही वह खुशी से मुस्कराए और मेरा हाल पूछा। उन्होंने मुझे मेरा कमरा बताया, मैं अपने कमरे की ओर चली गयी। वहाँ नलिनाबेन, श्रीमति और उसके पति पहले से ही विश्राम कर रहे थे। बाहर टीन के वरांडों में लगेज पड़ा था जो-जो आता जा रहा था अपना-अपना लगेज अपने कमरे मे ले जा रहा था।
मेरे पोर्टर ने मेरा लगेज कमरे में रखकर उसपर बंधी रस्सी खोलकर चलागया। मैंने सूखे कपड़े पहने गीले कपड़े फैलाए और डाइनिंग-रुम में गर्म कॉफी पीने चली गयी। वहाँ एलओ और अन्य वे यात्री बैठे हुए थे जो बहुत पहले पहुँच गए थे। एलओ कु.म.वि.नि. और भा.ति.सी.पु. बल के अधिकारियों से पल-पल की खबर ले रहे थे। खबर थी कि छतरी झरने के आगे भूस्खलन हुआ था और पहाड़ बहुत बुरी तरह गिर रहे थे। बार-बार तीर्थ-यात्रियों की गिनती हो रही थी कौन आगया और कौन रह गया।
पता चला हमारे कई यात्री लैंड-स्लाडिंग के कारण आ नहीं पा रहे थे। रास्ता बिल्कुल बंद हो गया था। एलओ रैस्क्यू हेतु वहाँ जाने ही वाले थे कि सिपाहियों के साथ बुरी तरह भीगे और हांफते हुए एक-एक करके स्नेहतलाजी, वीनामैसूर, दीपक पांड्या जी और श्री शर्मा जी पहुँच गए। भगवान का लाख-लाख धन्यवाद था कि किसी को कोई चोट नहीं आयी थी हाँ पहुँचे बहुत परेशानी का सामना करके।
स्नेहलताजी और वीना मसूर बहुत रो रहीं थीं। सभीने उन्हें ढाढस बंधाया कि सकुशल पहुँचने पर रोना नहीं बल्कि भगवान का धन्यवाद देना चाहिए। मैं, नलिनाबेन और रश्मी उन दोनों को अपने कमरे में ले गए। उनको सूखे कपड़े पहनवाकर गर्म सूप पिलवाया।
उस कमरे में आठ तख्तों पर बिस्तर लगे थे। यहाँ भी एक बिस्तर पर आदि-कैलाश पर जाते हुए बीमार होकर वापिस जाने वाली तीर्थ-यात्री लेटी हुयी थी। लाइट नहीं आरही थी सो हमसब रजाई में दुबक गए। थोड़ी देर में बारिश बंद हो गयी।
सभी फिर चहल कदमी करने लगे। एलओ ने सीटी बजाकर सभी को डाइनिंग-रुम में बुलाया और आजकी धटना की समीक्षा करते हुए सभी को कुछ सुझाव दिए। खाना लग चुका था। शिव-वंदना करके सभी ने भोजन किया और सोने चले गए। अगली सुबह साढ़े पांच बजे प्रस्थान करना था।
कमरे में आकर मुझे याद आया कि जूते तो बिल्कुल गीले थे। मैं भागकर रसोई में पहुँची वहाँ खाना बन चुका था और खाया भी जा चुका था। मैं अपने जूते सूखाना चाहती थी चूल्हे के आगे आग के पास, पर यह क्या वहाँ तो तीर्थयात्रियों के बहुत सारे जूते पहले से ही सूख रहे थे। मैं सुबह को जल्दी उठकर सुखाने की सोचते हुए अपने कमरे में आकर बिस्तर लेट गयी। वीना मैसूर तो सो चुकी थीं पर स्नेहलता बहुत रात तक लैडस्लाडिंग के कारण बंद रास्ते पर कैसे वापिस आयीं के बारे में बताती रहीं। बातें करते करते कब नींद आगयी पता ही न चल।


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