लिपुलेख से नवींढांग
(स्वदेश वापिसी )
चौबीसवाँ-दिन 27/6/2010
लिपु बोर्डर पर खड़े यात्री अपने-अपने पोर्टर ढूंढने लगे। मैं भी चारों ओर देख रही थी पर मुझे पोर्टर और पोनी नज़र नहीं आए। मैं थोड़ा आगे बढ़ने लगी तभी मुझे नलिनाबेन मिलीं, उन्होंने मुझे रोककर मेरा पासपोर्ट दिया और बताया कि तकलाकोट में बस से उतरने पर चीनी अधिकारियों ने पासपोर्ट वापिस किए थे पर हम दोनों छोटी गाड़ी में बैठकर आ गए थे इसलिए एलओ को सौंप दिए गए थे। एलओ ने रास्ते में नलिनाबेन को दे दिए और उन्होंने मुझे।
सीमा से थोड़ा सा ही पीछे पोनी और पोर्टर्स की भीड़ जमा थी; ये वह सब थे जो चौथे दल को और उनके लगेज छोड़ने आए थे। पोनीवाले अपने-अपने पोनी पर बैठाने की ज़िद्द कर रहे थे। मैं अपने पोर्टर की तलाश में थोड़ा आगे आकर खड़ी हो गयी और दूसरे पोनी वालों से पूछ रही थी, ”धीरेंद्र (मेरा पोनी वाला) किधर है”? तभी एक बीस/इक्कीस साल का युवक पोर्टर मेरे पास आकर पूछने लगा – ”आप प्रेमलता मैडम हैं”? मैंने उसे प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा और पूछा -”हाँ क्यों?” उसने अपना परिचय ज्ञानप्रकाश के रुप में देकर बताया कि वह मेरे पोर्टर का बेटा था। उसके पिता की तबियत खराब थी सो वह मुझे लेने आया था।
मैंने उसे अपना बैग दे दिया और हंसकर पूछा कि उसने मुझे कैसे पहचाना। तो उसने बताया कि उसके पिता ने जो मेरा हुलिया बताया था बस उसी के अनुसार उसने मुझे ढूंढ़ लिया।
मैं पोनी वाले को ढूढने लगी तो ज्ञान ने ही बताया कि अगर पहलेवाला पोनीवाला न मिले तो किसी भी पोनी वाले के पोनी पर बैठकर जाया जा सकता है क्यों कि हमने पोनी का अनुबंध ठेकेदार से किया था न कि किसी पोनी वाले से; सारे पोनीवाले ठेकेदार के अधीन चल रहे थे। इसके अतिरिक्त जाते समय लिपुलेख पर सीमा पार करते समय पोनी और पोर्टर का एक ओर का सारा पैसा चुका दिया गया था। मैंने ज्ञान की सहायता से एक पोनीवाला बुलाया और पोनी पर बैठकर अन्य यात्रियों के साथ आगे बढ़ गयी।
सीमा पर ही हमें चौथे दल के सदस्य मिले जो हाथ जोड़कर अभिवादन कर रहे थे। कई यात्री तो पैर छूकर आशीर्वाद ले रहे थे। हम सभी ने उनकी यात्रा सकुशल होने की शुभकामनाएँ दीं। एक यात्री नंगे पैर जा रहे थे, हम सभी ने उनसे और उनके ग्रुप से उन्हें जूते पहनाने का आग्रह किया पर पता नहीं वह माने या नहीं माने। हम आगे बढ़ गए थे।
रास्ता उतराई का था सो पोनीवाला लगाम कसकर धीरे-धीरे चला रहा था। सिपाहियों के ग्रुप भी यात्रियों के साथ-साथ चल रहे थे। हम सकुशल यात्रा पूरी करके स्वदेश वापिसी के सुखद भाव में भरे प्रकृति के सुंदर बिछावन को देखकर मोहित हो रहे थे जिन्हें जाते समय अंधेरा होने के कारण देख भी न सके थे। क्या दृश्य थे! उन्हें देखकर मुझे लग रहा था कि वह कोई विशाल पोस्टर है। मैंने सुंदर दृश्यों को कैमरे में उतारा और ललचायी सी चारों ओर देखती आगे बढ़ती गयी।
बीच में उसी स्थान पर जहाँ बर्फ़बारी से ध्वस्थ आयटीबीपी का वार्ता-कक्ष था, सिपाहियों ने हम सब को रोककर गर्म-गर्म चाय और चिप्स खिलाए। सुबह से इतनी ठंड में चलने पर मिली वह चाय नहीं अमृत थी। शरीर को गर्मी और स्फूर्ती मिली। हम अपने उन जवानों की निस्वार्थ सेवा के ऋणी हैं।
सवा नौ बजे हम नवींढांग-कैंप पहुँचे। कुमंविनि के कर्मचारियों ने अभिवादन के साथ स्वागत किया और बुरांस का शर्बत पिलाकर यात्रा पूरी होने की बधाई दी।
बाथरुम जाते समय पता चला कि एक कमरे में फोन सुविधा चालू थी, बस सारे यात्री घुस गए उस कमरे में और लाइन से खड़े हो गए। हम सभी ने अपने घर बात की। फोन वाला कर्मचारी बहुत सहयोगी था।
फोन करके हम सब डोम में नहीं गए क्योंकि वहाँ हमें ठहरना नहीं था बल्कि खाना खाकर कालापानी पड़ाव के लिए निकलना था सो यात्री आते जा रहे थे और बाहर खुले में ही धूप में बैठकर बातचीत करते खाना तैयार होने का इंतज़ार कर रहे थे।
बायीं ओर ’ऊँ’ पर्वत था पर वह पूरी तरह बादलों में छिपा हुआ था लेशमात्र भी झलक न दिखायी, फिर भी कोई निराश न हुआ क्योंकि हम जाते समय बहुत लंबे समय तक उसके पूर्ण दर्शन कर चुके थे।
साढ़े दस बजे निगम के कर्मचारी ने बताया कि खाना लग चुका था। सारे यात्री भूख से व्याकुल थे सो बच्चों की तरह दौड़ पड़े उस कक्ष की ओर। तुअर की दाल, दो प्रकार की सब्जी, कढ़ी, रायता, रोटी, आचार, पापड़, चावल और खीर सब गर्मागर्म!
सभी अपना-अपना खाना थाली में परोसकर खाने के लिए बाहर आगए। हमसब की सकुशल वापिसी की खुशी में बनाया गया भोजन। सभी यात्री उन कर्मचारियों की प्रशंसा करते-करते पेट-पूजा कर रहे थे।
खाना खाने के पश्चात एलओ ने सभी को एकत्र किया और नवींढांग कैंप के इंचार्ज और समस्त कर्मचारियों को बुलाया और इतनी आत्मीयता के साथ सहयोग और सेवा के लिए पूरे दल की ओर से आभार प्रकट किया और इंचार्ज की उपस्थिति में अपने दल के प्रायवेट-फ़ंड से सभी को कुछ-कुछ राशि इनाम बतौर दी और विदा ली।