17जून 2010 (चौदहवाँ दिन)
तकलाकोट से दारचेन
(दूरी 115 किमी, ऊँचाई 5182 मीटर)
सुबह उठकर तैयार होकर बैग और बेंत लेकर कमरे से बाहर आ गए। कमरे की चाबी गुरु को देदी। अभी दिन भी ठीक से न निकला था पर हमें बच्चों की तरह जल्दी थी।
स्वागत-कक्ष में अन्य तीर्थयात्री भी इकट्ठे होने लगे थे। हमने अपने हैंडबैग से भुने चने निकाले सबको कुटकने के लिए दे दिए।
गेट के बाहर बिलकुल पास में ही एक बड़ी बस खड़ी थी जिसकी छ्त पर लगेज चढ़वाया जा रहा था। सभी यात्री अपना-अपना लगेज बस तक पहुँचा आए। लगेज कमेटी और गुरु मिलकर सामान की गिनती और सुरक्षित बांधने के कार्य को देख रहे थे।
डिक्की ने नाश्ता करने के लिए चलने को कहा। सब नाश्ता करने चले गए। नाश्ता किया और आकर बस में बैठ गए। यात्री भाग कर बस में चढ़ रहे थे। सभी को खिड़की वाली सीट चाहिए थी।
मैं और नलिनाबेन तो पहले ही आकर ड्राइवर के बिल्कुल पीछे वाली सीट पर बैठ गए थे, वीना मैसूर और स्नेहलता बराबर वाली सीट पर। तिब्बत में ड्राइवर की सीट बायीं ओर होती है जबकि हमारे यहाँ दायीं ओर। बस आरामदायक थी।
एलओ सबसे बाद में बस में चढ़े और आते ही ग्रुप लीडर्स से यात्रियों की उपस्थिति पूंछी सभी सदस्य उपस्थित थे। गुरु ने बताया कि हम दारचेन जा रहे थे। प्रकाशवीर ने बड़े उत्साह से जयकारे लगवाए और ठीक सात बजे बस चल पड़ी।
बस तकलाकोट से निकलकर खेतों और करनाली नदी के किनारे चलती-चलती सुनसान इलाके में पहुँच गयी। जहाँ सड़क पक्की थीं। पर ट्रैफ़िक बिलकुल नहीं था। कभी-कभी कोई जीप या बाइक आती-जाती दिखायी देती या कहीं-कहीं पर सड़क -मरम्मत करते मजदूर।
ऊँचे-नीचे रास्तों पर चलती बस से तिब्बत के पठार का नज़ारा कम सुंदर नहीं था। ऊपर सफ़ेद बर्फ़ से ढ़की चोटियाँ तो नीचे मटमैले पठारों की चोटियों की श्रृंखलाएँ। वाह! प्रकृति का क्या संयोजन था। निर्जन सड़क पर चलते-चलते कभी-कभी भेड़ों के झुंड मिल जाते थे।
उत्सुकता से तिब्बत की प्राकृति को निहारते चले जा रहे थे। ड्राइवर ने बस में चीनी गीत बजा रखे थे, जिनके बोल हमें बिलकुल समझ नहीं आ रहे थे पर संगीत की मधुरता तो सचमुच डुबोने वाली थी। पीछे कुछ यात्री स्वयं भी कीर्तन कर रहे थे।
चलते-चलते साढ़े आठ बजे के करीब गुरु खड़ा होकर सभी से मुखातिब होकर बताने लगा ’कुछ ही पलों में हम राक्षस-ताल देखेंगे।’
सभी उत्सुकता से बाहर देखने लगे। दूर हमें नीलमणि सी चमकती एक झील दृष्टिगोचर हो रही थी। उसका सौंदर्य मूक कर रहा था। हम देख रहे थे पर शब्द न सूझ रहे थे।
राक्षस-ताल जहाँ रावण ने कई हजार वर्षों तक तप करके भोले शिव को प्रसन्न कर लिया था तब भोले-भंडारी ने पार्वती के लिए विरंचित सोने की लंका उसे वरदान में दे दी थी।
रावण के कारण राक्षस-ताल अभिशप्त मानी गयी है। किंवदंतियों में इसके जल को विषैला बताया गया है, इसलिए इसके जल का स्पर्श वर्जित माना गया है। कहते हैं इसका जल दिनरात कम हो रहा है। जब पूरी ताल सूख जाएगी तो बुराइयों का अंत हो जाएगा। हम इन बातों में विश्वास नहीं करते हैं पर यह भी आशा करते हैं कि दुनिया से बुराइयों का अंत जल्दी हो जाए!
एक स्थान पर आकर बस रुक गयी। गुरु ने सभी से नीचे उतरने का आग्रह किया और दूर से ही झील निहारने की सलाह दी। नीचे उतरते ही अपने को संभालना मुश्किल था।
अपने साथ उड़ा लेजाने वाले वेग से चलती धूलभरी हवा टिकने नहीं दे रही थी। स्कार्फ़ आदि कसकर बाँध लिए थे तब जाकर नीचे खड़े हो पाए। गुरु ने रावण की कहानी सुनानी शुरु कर दी कुछ लोग उसे सुनने लगे हम थोड़ा आगे जाकर फोटो खींचने लगे।
पठारी लाल-मिट्टी और फैली हुयी छोटी-छोटी चटटानों वाले किनारों वाली लहरों के उछलने से श्वेत झाग पैदा करती, निर्मल नील नीर वाली राक्षस-ताल का सौंदर्य शायद दुनिया की सुंदरतम झीलों में आँका जाता होगा।
वहाँ कहीं-कहीं पुराने कपड़े भी पड़े थे शायद लामा लोग या बौद्ध तीर्थयात्री फेंक जाते होंगे।
हमारे सामने तो वहाँ कोई न था। सुनसान निर्जन में लहरों के रुप में क्रीड़ा करता बस ताल था। हम थोड़ा और आगे जाना चाहते थे पर डिक्की ने रोककर जल्दी बस में बैठने को कहा। हम उसकी बात मानते हुए बस में चढ़ गए। अन्य यात्री भी आकर बैठ रहे थे।
राक्षस-ताल से कैलाश-पर्वत और अन्य पहाड़ भी बहुत दूर हैं फिर भी इसमें इतना पानी!
असल में कैलाश-पर्वत से पिघलकर जल मानसरोवर झील में आता है और जब मानसरोवर भर जाती है तो जल राक्षस-ताल की ओर बहकर चला जाता है। एक ओर मानसरोवर झील है तो दूसरी ओर राक्षस-ताल। दोनों को जोड़ने वाली एक संकरी नदी है जो उस समय सूखी पड़ी थी।
बस चल पड़ी और तभी जुनेजा और बालाजी चिल्लाकर बताने लगे- वो देखो मानसरोवर और सामने कैलाश-पर्वत। दाँयी ओर मानसरोवर-झील और सामने से पर्वत श्रृंखलाओं के बीच कैलाश-पर्वत दिखायी दे रहे थे। सभी उत्सुकता से अपनी-अपनी सीट से खड़े हो गए और भगवान शिव के जयकारे लगाने लगे। यही प्रथम दर्शन थे शिव-धाम के।
कुछ ही क्षणों में आकाश में बादल घिरने लगे थे जिस कारण कैलाश-दर्शन बंद हो गए। सभी यात्री प्रसन्न और उत्साहित थे।
सवा दस बजे के आसपास हमें दारचेन शहर की झलक दिखायी देने लगी। पंद्रह/बीस मिनट में ही बस दारचेन के गेस्टहाऊस के प्रांगण में आकर रुक गयी। बस से उतरते ही दूर पूर्व दिशा में हिम-मंडित कैलाश-पर्वत दिखाई दे रहा था। सभी एक झलक देखना चाहते थे, बादल बार-बार छुपा लेते थे।
एलओ ने गुरु की मदद से सभी को कमरे नं बताए। हम चारों स्त्रियाँ एक ही कमरे में ठहरीं। लगेज कमरे में रख लिया।
लंबी कतार में बने कमरे जिनके आगे बने बराण्डे हवा और ठंड से बचाव के लिए शीशे से कवर्ड थे, कमरे बहुत आरामदायक थे जिनमें चार-चार बैड लगे थे, पर टॉयलेट बिलकुल बाहर बहुत दूर थे।
एक छोटी सी कोठरी में तीन/चार फुट की लकड़ी तीन ओट/पार्टीशन लगाकर तीन लेटरीन बनीं जिनमें पानी की व्यवस्था नहीं थी। बराबर में ही एक बड़े से कन्टेनर में पानी भरा था और मग रखे थे। दुर्गंध इतनी कि दम घुट जाए, नहाने के लिए तो कोई स्थान नहीं था।
बस से उतरते ही तिब्बती महिलाएँ अपनी पारंपरिक वेशभूषा में भागकर हमारे कमरों तक आ गयीं और मोती/स्टोन की बनी मालाएँ और अन्य आभूषण बेचने हेतु प्रदर्शित करने लगीं। कुछ यात्रियों ने खरीद भी लिए।
एलओ ने आज दोपहर के भोजन के प्रबंध की जिम्मेवारी स्मिताबेन और गीताबेन के ग्रुप को सौंपी थी। आते ही उनका ग्रुप तीनों कुक्स को साथ लेकर पिछवाड़े थोड़ी दूर पर रसोई बनाने के लिए चला गया। हम सब भी उनकी मदद के लिए वही चले गए। (जैसा कि मैं पहले भी लिख चुकी हूँ कि यात्रा के इन दिनों में भोजन के प्रबंध तीर्थयात्रियों को स्वयं करना था। चीन-सरकार पकाने और खाने के लिए बर्तन और गैस, चूल्हा इत्यादि प्रोवाइड करा देती है। इतने दिनों का राशन तीर्थयात्री अपने देश से ही लेकर चलते हैं।)
चीनी कुक्स को रोटी बनानी नहीं आती थीं पर बाकी सभी कामों में जी-जान से मदद कर रहे थे। दाल-चावल, आलू की सब्जी और (गुजरात से लाए) थेपलेऔर चटनी खाकर सभी तृप्त हो गए। सभी ने शायद नवींढांग के बाद आज भर पेट खाना खाया था।
अभी रसोई समेटी ही जा रही थी कि एलओ ने ग्रुप-लीडर्स से कहलवाया कि सभी तीर्थयात्री अष्टपद-दर्शन करने के लिए तैयार हो जाएँ।
अगले अंक में अष्टपद-दर्शन का वर्णन…