भूमिका
जब मैं कोई दस बारह साल की थी तो उस समय बड़े आकार के धर्मयुग या साप्ताहिक-हिंदुस्तान आते थे (दोनों लगभग एक ही आकार के होते थे) जिसमें मैंने एक यात्रा संस्मरण कैलाश-मानसरोवर यात्रा पर पढ़ा था जिसकी तस्वीरों की झलक मुझे आज तक याद है। तब मैंने भी कल्पना की थी कि काश! मैं भी वहाँ जाऊँ। उस सुप्त-इच्छा को कैसे साकार किया यही कहना चाहती हूँ।
जाने का कार्यक्रम कैसे बना
बात २००९ के अगस्त के महीने की है। एक दिन मैं खाली समय में अपनी सखी के साथ बैठी कहीं तीर्थ-स्थल पर जाने के बारे में चर्चा कर रही थी कि तभी पवित्र कैलाश-मानसरोवर यात्रा की बात चली। मेरा मन वहाँ जाने के लिए उड़ने लगा पर मेरे पास पासपोर्ट नहीं था। बस मैंने उसी दिन पासपोर्ट बनवाने के लिए विभागीय औपचारिकताएँ पूरी करने हेतु आवेदन कर दिया। सभी कार्यों को पूरा करते-करते आखिरकार १६ फरवरी २०१० को पासपोर्ट भी मिल गया, पासपोर्ट मिलते ही उसी दिन यात्रा हेतु विदेश-मंत्रालय में ऑन लाइन पंजीकरण भी करा दिया। आवेदन-पत्र की हार्ड कॉपी भी विदेश-मंत्रालय को भेजनी थी जिसके साथ एक अपना पता लिखा पोस्टकार्ड भी पावती के लिए संलग्न करवाया गया था, वह सब भी उसी दिन स्पीडपोस्ट से भेज दिए। कई दिन बीतने पर जब पावती पोस्टकार्ड वापिस नहीं आया तो मैंने संबंधित विभाग में फोन करके पूछा कि मेरा फॉर्म मिल गया कि नहीं, तब खुशी से उछल गयी जब विभागयीय-व्यक्ति ने बड़ी ही सधी भाषा में मेरे आवेदन प्राप्ति की बात स्वीकार की और पोस्टकार्ड-पावती कुछेक दिन में भेजे जाने का आश्वासन भी दिया। फिर दो या तीन दिन बाद पावती पोस्टकार्ड मिल गया। तब जाकर जान में जान आयी कि अब तक की मेहनत सफल रही। पंजीकरण तो बिल्कुल सही हो गया है।
इसके बाद तो और कोई बात सोचने का मन नहीं करता था। बस यही दुविधा रहती थी कि ड्रा में मेरा नाम आएगा कि नहीं।
मंत्रालय ने मात्र ड्रा निकालने की सूचना नेट पर लिख दी। इकतीस मार्च को ड्रा निकला। अगले दिन मैंने फिर मंत्रालय में फोन किया अपने बारे में जानने के लिए। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा जब वहाँ से किन्ही महिला कर्मचारी ने बताया कि मेरा नाम ड्रा में आया था। मेरा नाम दूसरे बेच के यात्रियों में था जो सात जून को दिल्ली से रवाना होना था।
कुछ दिन में ही विदेश-मंत्रालय से डाक द्वारा दूसरे बैच के यात्रा-दल में मेरा नाम होने की सूचना मिली, साथ ही पाँच हजार रुपए का ड्राफ़्ट भी मंगवाया गया था, जो मैंने निश्चित समयावधि में स्वीकृति-पत्र के साथ भेज दिया। (जो लोग यह ड्राफ़्ट निश्चित समयावधि में नहीं भेजते हैं उनकी यात्रा हेतु अस्वीकृति मान ली जाती है) यात्रा-कार्यक्रम चार जून को मेडिकल जाँच से प्रारंभ होकर दो जुलाई को वापिस दिल्ली में समाप्त होना था।
उन दिनों छोटी-छोटी बात पर मन चिंतित सा हो जाता था, कि कहीं किसी ग़लती या भूल से कहीं जाना रुक न जाए। अब सोचती हूँ कि कैसे हम अधीर हो जाते हैं जब मन कुछ ऐसे काम की सोचता है|
तभी से तैयारी शुरु हो गयीं। सबसे पहले अपने विभाग से विदेश जाने की आज्ञा ली। उसके बाद विदेश-मंत्रालय द्वारा भेजी गयी लिस्ट के आधार पर सामान इकट्ठा करने लगी। कोई सामान न रह जाए! इतना ही नहीं प्रतिदिन टहलने को दौड़ने में बदल दिया और सुबह-शाम व्यायाम का समय भी बढ़ा दिया, रोज बिना नागा योगा करने लगी ताकि मेडिकल जाँच में फेल न हो जाऊँ 🙂
यूँ तो विदेश-मंत्रालय की साइट पर संपूर्ण ब्यौरा उपलब्ध था, पर मई में विदेश-मंत्रालय से यात्रा संबंधित रंगीन-चित्रमय पुस्तिका तथा संलग्न कागजातों और कार्यक्रम की विस्तृत सूचना पुनः मिली। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार हमें सात जून को जाना था, पर उससे तीन दिन पहले चार और पांच जून को मेडिकल-जाँच होनी थी और छः जून को ग्रुप-वीज़ा मिलने के साथ-साथ अन्य औपचारिकताएँ भी पूरी होनी थीं। एक ओर तो खुशी बढ़ती जा रही थी पर दूसरी ओर मन में डर सा बैठ गया था कहीं उस समय अनफिट न हो जाऊँ। ( क्योंकि उस समय अचानक किसी बीमारी से ग्रस्त होने पर भी रोकी जा सकती थी।)
पहला दिन
04/6/2010
चार जून आ गयी। सुबह आठ बजे खाली पेट ’दिल्ली हार्ट एंड लंग्स इंस्टीट्यूट’ पहुँचकर रिपोर्ट करनी थी, सो मैं उत्साह और साहस से भरपूर परिवार के किसी भी सदस्य को साथ लिए बिना हुए जल्दी घर से निकल पड़ी। जल्दी इतनी कि ऑटो-रिक्शा में किराया पूछे बिना बैठ गयी और ढूँढ-ढाँढ कर अस्पताल पहुँच गयी। वहाँ मुझसे पहले ही हमारे दल के सभी यात्री प्रतीक्षा-कक्ष में बैठे हुए थे। मैं हड़बड़ी में थी। मुझे लगा कि देर हो गयी है। (अन्य स्थानों से आए सभी कैलाश-मानसरोवर यात्रियों को कुमाऊँ-मंडल और दिल्ली सरकार गुजराती-समाज में ठहराते हैं।) कुमाऊँ-मंडल के कर्मचारियों द्वारा वे सब एक बस में हार्ट-इंस्टीट्यूट लाए गए थे। यहीं पर पहली बार अपने सहयात्रियों (दल के सदस्यों) से मेरा परिचय हुआ। मैंने अस्पताल जाँच-प्रक्रिया के बारे में दल के सदस्यों से बातचीत की।
अस्पताल के युवा कर्मचारी बड़ी मृदु-वाणी में सौहार्द्रपूर्ण ढंग से यात्रियों के नाम पुकार कर बुला रहे थे। सभी को पहचान हेतु एक रीबन बांधने को दिया गया था।
एक ओर अस्पताल के कर्मचारी एक फार्म भरवा रहे थे जिसमें हमारी स्वास्थ्य संबंधी जानकारी भरनी थी साथ ही २१०० रुपए फीस भी जमा करनी थी और बैठकर अपने नंबर की प्रतीक्षा करनी थी तो दूसरी ओर कुमाऊँ-मंडल के अधिकारी हमारे पासपोर्ट और वीज़ा-शुल्क दौ सौ रुपए एकत्र कर रहे थे।
अस्पताल में मूत्र और रक्त की जाँच के अलावा ई.सी.जी., ट्रेडमिल टेस्ट जैसी जाँच भी हुईं। मुझे हवा फूंकने में थोड़ी दिक्कत रही। डॉ० साहब ने कहा कि मेरा ५०० रुपए अतिरिक्त शुल्क देकर पी.एफ.टी. होगा। करते-करते ग्यारह बज गए। खाली पेट में चूहे कूद रहे थे। मुझे पता चला कि उस टेस्ट के लिए खाली पेट की आवश्यकता नहीं होती। बस मैं भागी नाश्ता खाने। अस्पताल की केंटीन में टोकन लेकर नाश्ते की व्यवस्था थी। चाय-सेंडविच इत्यादि। भूखे हो तो कुछ बुरा नहीं लगता। वैसे नाश्ता अच्छा था। 🙂 उसके बाद पी.एफ.टी. टेस्ट के लिए गयी तो वहाँ अन्य कई सह-यात्रियों को लाइन में लगे देखा। बाद में सभी पास हो गए| 🙂
अभी डॉक्टर से मीटिंग होनी थी और लंच भी करना था। सभी यात्री आकर एक बड़े हॉल में बैठ रहे थे। हम महिलाएँ एक दूसरे से ऐसे बातें कर रहीं थीं जैसे बहुत पहले से एक दूसरे को जानते हों। सभी यात्रा में ले जाने वाले खाने के सामान और कपड़ो के विषय में सुझाव दे और ले रहे थे।
अस्पताल की डाइरेक्टर ने एक-एक यात्री को बुलाकर अस्पताल के स्टाफ़ के व्यवहार के बारे में मौखिक और लिखित फीडबैक लीं। जब मैं अंदर गयी तो मेरी हिंदी बोली 🙂 से निदेशक महोदया इतनी प्रभावित हुयीं कि मुझसे हिंदी में ही अपना फीडबैक देने का अनुरोध किया जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और अपनी बात प्रभावशाली ढ़ंग से लिखी। पढकर डॉ० साहिबा बहुत खुश हुईं और ’ऊँ नमःशिवाय’ कहकर यात्रा हेतु शुभकामनाएँ दीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि अस्पताल के स्टाफ का व्यवहार अति मृदुल और कहीं अधिक सहयोगी था। 🙂
कुछ देर में हम सभी को एक बड़े कमरे में लेजाया गया। यहीं दोपहर का खाना अस्पताल के तीमारदार कक्ष (जहाँ मरीजों के रिश्तेदार रुक सकते और आराम कर सकते थे) में दिया गया। थर्मोकोल की पैक्ड थालियाँ थीं। दाल-रोटी, सब्जी,चावल और रायता सभी कुछ। सभी बहुत भूखे थे सो टूट पड़े खाने पर।
खाना खाने के बाद कॉनफ़्रेंस रूम में दो डाक्टरों ने संबोधित किया। पर्वतारोहण के समय होने वाली स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से सावधानी बरतने और रोग-संबंधी जानकारी दी। जो दवाइयाँ अपने साथ ले जानी थी उनकी जानकारी दी। कुछ पावर-पाइंट प्रस्तुति भी दी। शाम को मैं सभी तीर्थयात्रियों के साथ बस में बैठकर कश्मीरी-गेट आगयी। कश्मीरी-गेट से मेट्रो-ट्रेन में बैठकर घर आ गयी।
अगले दिन सुबह मदनगीर में भा०ति०सी०पु० के अस्पताल में बुलाया गया था। वह जगह मेरे घर से बहुत दूर थी।
दूसरा दिन
05/6/2010
आईटीबीपी बेस हॉस्पीटल पहुँचने का समय नौ बजे था। अस्पताल घर से बहुत दूर दिल्ली के एक कोने में तुगलकाबाद के पास था। मैं अपनी यात्रा का सारा काम अपने आप करना चाहती थी सो अकेली चल पड़ी। ऑफ़िस-टाइम होने के कारण हर जगह ट्रैफ़िक जाम था। मैं साढ़े दस बजे मदनगीर पहुँची। देर हो जाने के कारण हड़बड़ाहट हो रही थी। जैसे-तैसे अस्पताल के मुख्य द्वार पर पहुँची। एक तो अस्पताल बहुत बड़ी जगह में है दूसरे अनजान थी, कोई संकेतक हमारे संदर्भ हेतु नहीं था। वहाँ से अभीष्ट स्थान पर पहुँचने में लगभग दस मिनट लग गए।
भागकर जब सब यात्रियों के पास पहुँची तो पता चला कि सुविधा हेतु यात्रियों के छोटे-छोटे समूह बना दिए गए थे और अलग-अलग कमरों में डॉक्टर्स एक-एक को बुलाकर कुछ जाँच के साथ-साथ कल की जाँच-रिपोर्टों के आधार पर अंतिम रिपोर्ट दे रहे थे। पूछते-पूछते मुझे मेरा समूह मिला। एक सदस्य मेरी फाइल संभाले हुए मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। फाइल लेकर मैं उस कक्ष के आगे पड़ी बैंच पर बैठ गयी जिस में मुझे बुलाया जाना था।
अभी बैठी-बैठी अन्य सह यात्रियों से बात कर ही रही थी कि किसी यात्री ने बताया कि हमारे एल०ओ० साहब भी आए हुए हैं। तभी एक युवा मेरे पास वाली सीट पर आकर बैठ गए और मुझसे मुखातिब होकर बोले- माईसेल्फ़ मनीष गर्ग, एल०ओ० सैंकेण्ड बैच। व्हाट्स यॉर गुड नेम? मैंने अपना नाम बताया। इसके बाद उन्होंने मेरे पर्वतारोहण के बारे में अन्य प्रश्न भी पूछे।
एल०ओ० साहब अभी पूछ ही रहे थे कि अन्य यात्री भी आगए और अपना परिचय देने लगे। हंसी-मज़ाक का माहौल बन गया।
ऊपर पहली मंजिल पर खाने का प्रबंध था। जिन यात्रियों की रिपोर्ट मिलती जा रही थी वे सब ऊपर जाकर भोजन कर रहे थे। थोड़ी देर में मेरा नंबर आया। एक डॉ०साहिबा हमें देख रही थीं। उन्होंने मेरा रक्तचाप देखा जो बिल्कुल ठीक था पर कल की रिपोर्ट में उन्हें कुछ असमंजस्य था तो उन्होंने किन्हीं अन्य डॉक्टर से फोन पर बात की और फाईल लेकर उनके पास भेज दिया। मैं लपकी उनके कक्ष की ओर। हाथ में फाइल और तेज क़दम। धड़कन तेज हो गयी। पता नहीं डॉ० साहब क्या कहेंगे! दुविधामय घबराहट न जाने क्या-क्या?
पूछकर अंदर गए। डॉक्टर ने पेपर्स देखे और ओके कर दिया। मेरे चिंतित मन को इतनी खुशी हुई कि आँखें हल्की सी नम हो गयीं। डॉ० साहब ने यात्रा की शुभकामनाएँ दीं और बाहर भेज दिया। मैं बाहर आयी तो लोगों ने आँखें देखकर समझा कि मैं फेल हो गयी, पर शीघ्र ही सबको पता चल गया कि मैं उनके साथ जा रही थी।
ऊपर खाना खाने गए। भटिंडा की प्रायवेट सेवा-संस्था की ओर से भोजन का आयोजन था। वे बड़े आदर से साथ ले जा रहे थे। स्वयं हाथों से खाना परोस रहे थे और झूठी थालियाँ भी उठाने को तैयार थे, ये अलग बात है कि हमने उन्हें मौक़ा नहीं दिया। उस संस्था ने यात्रियों को एक-एक बैल्ट-पाउच भी भेंट किए। बेंत भी दिए थे जिन्हें एक साथ गुजराती समाज पहुँचा दिया था ताकि एकसाथ बस में ले जाए जा सकें कोई अलग रखकर भूल न जाए।
अभी सब लोग खा-पी रहे थे कि बताया गया कि सभी यात्री सभा-कक्ष में एकत्र हो जाएं, एल०ओ० साहब मीटिंग लेंगे। धीरे-धीरे सभी लोग एकत्र हो गए। तभी पता चला कि कुछ लोगों का दुबारा टेस्ट हो रहा है। उनमें एक राजस्थानी दंपत्ती भी थे, जिनकी पत्नी तो योग्य थीं पर पति मधुमेह से बहुत अधिक पीड़ित थे और भी कई यात्री जिनमें हमारे ग्रुप की कर्नाटक से आयीं सदस्य थीं, अभी जाँच से गुजर रहे थे। उनकी रिपोर्ट आनी थीं।
सभी सभा-कक्ष में एकत्र होगए। सभा-कक्ष को देखकर पता चल रहा था कि यह फ़ौजी-कक्ष है। बड़ी और लंबी मेज के चारों ओर कुर्सियाँ लगीं थीं। सभी आते गए और बैठते गए। एल०ओ० ने सभी को शुभकामनाएँ दीं और जो लोग पहले भी जा चुके थे उन लोगों से बातचीत के आधार पर कमेटियाँ बनायीं और कार्य-भार सौंपे। वह तो अगले दिन मिलने की कहकर चले गए। तभी एक प्रायवेट संस्था के अध्यक्ष श्री गुप्ता जी आए। उन्होंने यात्रियों की सुविधा हेतु कुछ सामान देने की पेशकश की जिसे सभी ने विनम्रता से स्वीकार कर लिया वे सामान की लिस्ट पढ़कर सुनाकर और देकर चले गए।
चूँकि कुछ यात्रियों की मेडिकल-रिपोर्ट अभी भी आनी शेष थीं इसलिए सभी यात्री उसी कक्ष में बैठे उनका इंतजार कर रहे थे।
समय बिताने के लिए सभी ने अपना-अपना विस्तृत परिचय देना शुरु किया। हरेक यात्री ने अपना काम-व्यवसाय और शौक इत्यादि बताए साथ ही अपने पर्वतारोहण के अनुभव भी बाँटे। ऐसे करते-करते सभी यात्रियों की रिपोर्ट्स मिल गयीं। हमारे बैच में से दो यात्रियों को चिकित्सीय-जाँच में अयोग्य पाया गया। उस समय यह निश्चित हो गया कि हमारे बैच में केवल ४८ यात्री ही जाएँगे।दल में सबसे अधिक आयु तिहत्तर साल के श्री बंसल जी और अमर सबसे छोटे अट्ठारह साल के थे।
राजस्थानी परिवार की उन महिला ने फिट होने पर भी अपने पति के न जाने के कारण अपना जाना भी रद्द कर दिया। वह बहुत उदास हो गयीं थी और रो भी बहुत रहीं थीं। सभी ने उन्हें यात्रा पर चलने की सलाह दी, उनके पति भी उनसे जाने के लिए कह रहे थे, पर वह न मानीं। एक रिटायर्ड व्यक्ति भी अयोग्य माने गए थे। सभी यात्री बस में बैठकर गुजराती-समाज की ओर चल पड़े। लगभग सात बजे वहाँ पहुँच गए। दो दिन में ही यात्रियों से मेल-मिलाप बढ़ गया था। महिला-यात्रियों ने साथ चलकर चाय पीकर जाने का अनुरोध किया जिसे मैंने मान लिया और मैं भी गुजराती-समाज के गेट में प्रवेश कर गयी। तीसरी मंजिल पर बड़े से कक्ष में सभी यात्री ठहरे हुए थे। रेलवे के डिब्बे की तरह ऊपर-नीचे बिस्तर लगे हुए थे।
मैंने नीचे आकर चाय पी और सहयात्रियों से विदा लेकर और कल विदेश-मंत्रालय के अकबर-भवन के अनारकली हॉल में मिलने का वायदा किया।
सुबह ऑटो-रिक्शा में अस्पताल पहुँचने में काफ़ी परेशान हुयी थी। गुजराती-समाज मेरे घर से बहुत दूर नहीं था सो मैंने सोचा मैं बस में ही सभी यात्रियों के साथ चली जाऊंगी। इस हेतु कुमांऊ-मंडल के कर्मचारी श्री दीवानजी को मैंने बता दिया था कि कल सुबह वह मेरी प्रतीक्षा करें मैं भी सभी के साथ अकबर-भवन बस में ही जाऊंगी। मेट्रो ट्रेन में बैठकर घर आगयी।
घर आकर सभी नजदीकी लोगों को अपनी यात्रा के पक्के होने की सूचना दी। अस्पताल से ही बार-बार सभी के फॉन आ रहे थे और एसमएस आ रहे थे । शुभकामनाओं का तांता लग गया था। अपने परिवार और आसपास के लोगों में मैं ही श्री कैलाशधाम के दर्शन करने जाने वाली पहली तीर्थयात्री थी।
तीसरा दिन
06/6/2010
सुबह आठ बजे मैं गुजराती-समाज के द्वार पर पहुँच गयी। बाहर बस खड़ी थी। सभी यात्री बस में बैठे हुए थे मैं लपककर बस में चढ़ गयी। पीछे जाकर सीट मिली। सभी को नमस्कार किया। बस चल पड़ी। सभी यात्री प्रफुल्लित और उत्साह से लबालब थे। उच्च-स्वर में ’ओम नमःशिवाय’ का उदघोष कर रहे थे। बस सड़कों पर दौड़ती हुयी लगभग साढ़े नौ बजे अकबर-भवन पहुँच गयी। सभी यात्रियों की क़तार बनाकर, नाम पुकारकर और लिस्ट से मिलाकर हॉल में पहुँचाया गया। यात्रियों के रिश्तेदारों को बाहर ही रहने का आदेश दिया गया।
विदेश-मंत्रालय और कुमाऊं-मंडल के आधिकारी वहाँ पहले से ही उपस्थित थे। सभी यात्रियों को ठंडा पेय और चाय-बिस्कुट सर्व की गयी। इतने में ही हमारे एल.ओ. साहब भी हॉल में प्रवेश कर गए। कुमाऊओं-मंडल और आईटीबीपी के अधिकारियों ने यात्रा की ब्रीफिंग की, साथ-साथ यात्रा संबंधी कठिनाइयों की जानकरी देते हुए उस समय भी किसी भी सदस्य को यात्रा रद्द करने की छूट दी।
इन्डेंमनिटी बोंड और फॉर्म इत्यादि भरवाए गए और शेष धन १९५०० रुपए भी लिया गया और रसीदें दीं। (सभी संलग्न प्रपत्र की भाषा-प्रारुप विदेश-मंत्रालय डाक द्वारा पत्र के साथ ही भेजता है।) सभी के पासपोर्ट वापिस किए ताकि लोग डालर खरीद सकें।
एलओ ने छः-छः यात्रियों के ग्रुप बनाए, सभी की इच्छा से अलग-अलग यात्रियों को कुछ-कुछ और काम सौंपे। हमारे ग्रुप में हम चार वे महिलाएँ थीं जो अकेली जा रहीं थीं और एक केरल से आए युगल (पति-पत्नी) थे। कुछ यात्री तो डालर का प्रबंध पहले से ही कर चुके थे, पर कुछ यात्रियों को डॉलर आज ही लेने थे, बस चलने में देर थी सो हम एलओ एवं अन्य सभी यात्रियों को बताकर लखनऊ की सहयात्री स्नेहलता और दिल्ली के श्री बिंद्रा जी के साथ दिल्ली के ही यात्री जुनेजाजी (जो पिछले चार बार से कैलाश-मानसरोवर की यात्रा पर जा रहे हैं) के कहने पर उनकी तवेरा में बैठकर आ गए। सभी अशोका होटल के सेंट्रलबैंक ऑफ़ इंडिया की शाखा में गए। विदेश-मंत्रालय ने इस बैंक की शाखा को कैलाश-मानसरोवर यात्रियों को रुपए से डालर बदलवाने हेतु हिदायतें दे रखी थीं। मुझे छोड़कर सभी ने बैंक की शाखा में विनिमय हेतु फार्म भरकर रुपए जमा कराए और डालर ले लिए। मैं कई दिन पहले ही इस शाखा से १३०० डालर खरीद चुकी थी।
स्नेहलताजी ने जब रुपए निकालने के लिए बैग खोला तो बोलीं कि उनके बीस हजार रुपए कहीं खो गए। पर कुछ ही क्षण में उन्हें याद आगया कि वे १९५०० रुपए कुमाऊँ-मंडल के पास भी जमा करके आयीं हैं। सभी बहुत हंसे। स्नेहलताजी से मज़ाक किया।
स्नेहलता जी रेलवेस्टेशन के गेस्टहाऊस में रुकी हुयी थीं सो वह अपने पति के साथ रेलवे-स्टेशन पर और बिंद्राजी को लक्ष्मीनगर जाना था सो आइटीओ उतर गए। मैं कश्मीरी-गेट उतर गयी और वहाँ से मेट्रो-ट्रेन में घर आगयी।
घर पर बहुत काम थे। वहाँ पुराने यात्रियों ने बताया था कि सामान के दो नग बनाएँ। कभी-कभी सामान के थैले खच्चर की पीठ से नदी में गिर जाते हैं तो एक थैले का सामान तो सुरक्षित रहेगा। अभी तक तो हमने एक ही थैला बनाया था। अब पता चला तो दो में सामान लगाया। अच्छी-खासी पैकिंग खोलनी पड़ी और बड़ी मुश्किल से दोबारा पैक किया। दोबारा हड़बड़ी में कीगयी पैकिंग में याद भी नहीं था कि सामान कहाँ-कहाँ ठूंस दिया।J घर-बाहर सभी हितेषी मुझे आयोजन के साथ विदा करने जाने को आतुर थे, पर मैं बिना शोर-शराबे के जाना चाहती थी सो सभी को प्यार से मनाकर केवल अपनी बड़ी बहिन के साथ जाने का प्रोग्राम रखा।
भजन-संध्या
उसी दिन शाम को साढ़े सात बजे दिल्ली-सरकार के राजस्व-विभाग की ओर से गुजराती-समाज में यात्रियों का विदाई-समारोह और भजन-संध्या का आयोजन था। सब काम करके हम नहा धोकर अपनी अग्रजा के साथ भजन संध्या में पहुँच गए। दिल्ली सरकार की तीर्थ-यात्रा विकास समिति के चैयरमैन श्री उदयकौशिक जी और एस.डी.एम राजस्व विभाग सामने स्टेज पर उपस्थित थे। दायीं ओर एक मेज पर भगवान गौरी-शंकर की मूर्ति विराजमान थीं जिन पर पुष्प-मालाएँ सुशोभित हो रहीं थीं। लोग बारी-बारी से आकर मूर्तियों पर तिलक लगा रहे थे और पुष्प समर्पित कर रहे थे। बायीं ओर एक बड़ी चौकी पर भजन गायक भक्ति रस फैला रहे थे। लोग मगन होकर तालियाँ बजा रहे थे, झूम रहे थे और नाच रहे थे। बहुत सुंदर समां बांधा गया था।
कुछ देर में हमारे एल.ओ. आ गए और उदयकौशिक जी के बराबर मंच पर बैठ गए। कुछ संबोधन और भाषण हुए। भगवान शंकर की आरती हुई। इसके बाद सभी यात्रियों का दिल्ली सरकार की ओर से स्वागत किया गया। सभी को फूलमाला पहनायी गयीं। एक ट्रैक-सूट, एक बरसाती सूट और एक ट्रैवल-बैग (रकसक) जिसमें एक टार्च और एक डिब्बे में पूजा का सामान था तथा एक सफेद कैप भी भेंट किया गया। स्मरण रहे दिल्ली-सरकार अपने राज्य से जाने वाले प्रत्येक कैलाश-मनसरोवर यात्री को पच्चीस हजार रुपया सब्सिडी भी देती है। छुट्टी का दिन होने के कारण हम चारों यात्रियों को यह रक़म यात्रा से वापिस आने पर मिली।
अब बारी थी भोजन की। सभी ने सुस्वादु भोजन का आनंद लिया। चूंकि लगभग यात्रीगण वहीं ऊपर रुका हुआ था सो कुछ-कुछ करके लोग जाते जा रहे थे। मैं, जुनेजा और बिंद्राजी हम तीनों स्थानीय यात्री अगले दिन सुबह ही वहाँ पहुँचने वाले थे। कल मैंने टिंक्कू और उसकी पत्नी को भी भजन-संध्या का आनंद लेने के लिए बुलाया था, पर वे दिल्ली के ट्रैफ़िक-जाम में फंस गए थे, कुछ देर में वे लोग आगए। उन्होंने अर्चना की और प्रसाद लिया और मेरे साथ चल पड़े। चलते-चलते मैंने जुनेजाजी से पूछा कि अगले दिन सुबहकिस समय तक पहुँच जाएं तो उन्होंने मुझे साढ़े चार बजे तक पहुँ जाने के लिए कहा। क्योंकि सभी लगेज वाला ट्रक पहले ही रवाना हो जाता है इसलिए हमें थोड़ा जल्दी पहुँचना था। मैं जल्दी पहुँचने की हां करके घर आगयी।
अगली पोस्ट में दिल्ली से प्रस्थान होगा। …
क्रमशः