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कालापानी से नवींढांग(ऊँ पर्वत)

मई 6, 2011

कालापानी से नवींढांग (ऊँ पर्वत के दर्शन)
14जून 2010 ग्यारहवाँ दिन)
कालापानी की ऊँचाई 3570मीटर,
नवींढांग की ऊँचाई 4145 मीटर

सुबह चार बजे मेरी आँख खुल गयी। धीरे से उठकर टॉर्च और ब्रश इत्यादि लेकर बाहर आगयी। बाहर अंधेरा था, ज़्यादा चहल-पहल नहीं थी हवा गज़ब ढा रही थी। रसोई में हल्की रोशनी दिखाई दे रही थी। मैं गर्म पानी के लिए वहाँ गयी। कु.मं.वि.नि. के कर्मचारी चूल्हा फूंक रहे थे। बहुत बड़े भिगोने में पानी गर्म हो रहा था। मैं जग में गर्म पानी लेकर बाहर बाथरूम के पास बनी नाली पर ब्रश करके चाय लेने पुनः रसोई चली गयी, तब तक कई यात्री जाग चुके थे और दैनिकचर्या मे व्यस्त थे।
चाय बन रही थी, मैंने पीने के लिए गर्मपानी लिया और वहीं पटरे पर बैठकर कर्मचारियों से बात करते हुए चाय का इंतजार करने लगी।
मैं नहाने के लिए गर्म पानी के जुगाड़ में थी। जब मैंने निगम कर्मचारी से पूंछा तो उसने पहले तो हलका सा न-नुक्कड़ किया फिर एक अन्य कर्मचारी से बोला- “बाहर चूल्हे पर पानी गर्म होने रख दो, यहाँ तो नाश्ता बनेगा।”
मैं चाय लेकर उस कर्मचारी के पीछे-पीछे आगयी और हमारे कमरे के बिलकुल पास में ही कतार में बने खोका टाइप स्नानागारों के पीछे उसने पत्थरों से बने चूल्हे पर पानी गर्म होने रख दिया। मैं अपने कमरे में चली गयी।
कमरे में सभी चाय पी रहे थे। गीताबेन और पटेल भाई मेरा मज़ाक बनाने लगे – “दीदी नहाएगी ज़रुर।” मैंने हंसते हुए अपने कपड़े लिए और बाहर आगयी। जहाँ पानी गर्म हो रहा था वहाँ गयी तो देखा कि सब यात्री गर्म पानी लेते जा रहे हैं पर ठंडा पानी कोई डाल नहीं रहा है जबकि पास में ही नल था।
मैंने दो बाल्टी पानी डाल दिया और खाली बाल्टी लेकर बैठ गयी गर्म पानी के इंतज़ार में 🙂 चूंकि आग बहुत तेज थी भिगोना गर्म था सो पानी जल्दी गुनगुना हो गया। मैं अपनी बाल्टी में पानी पलटने का यत्न करने लगी पर भिगोना बहुत भारी था, तभी सहयात्री मधुप वहाँ आया और प्यार से डाँटते हुए ” क्या आंटी बुला नहीं सकती हो! हटो” कहते हुए पानी बाल्टी में उड़ेलकर बाथरुम में रख गया। मैंने मुस्कराकर उसके सिर पर हाथ रखा और बाथरुम में घुस गयी, कहीं कोई और न चला जाए। 🙂
तैयार होकर मैंने पोर्टर को बुलाया और लगेज निर्धारित जगह पर रखने की कहकर उसे अपना हैंडबैंग और बेंत संभलवाकर अन्य यात्रियों के साथ नाश्ते के लिए भोजन कक्ष में चली गयी। मीठा दलिया और उपमा था नाश्ते में। मैं बिना तला नाश्ता देखकर अति खुश हुई और मन से ग्रहण किया। बोर्नविटा पीकर नलिनाबेन के साथ बाहर की छटा निहारने लगी।
धीरे-धीरे सभी यात्री पहुँचने लगे। एलओ ने सीटी बजायी और सभी ग्रुप-लीडर्स से अपने साथियों को गिनने को कहा। सभी यात्री उपस्थित थे। सहयात्री प्रकाशवीर ने जयकारे लगवाए और सहयात्री ब्रिगेडियर श्री बंसल जी की जय भी बुलवायी ( क्योंकि वह ७३ साल के सबसे बड़े तीर्थयात्री थे। सभी उनके स्वास्थ्य के लिए चिंतित रहते थे, जबकि वह अपनी बिलकुल परवाह नहीं करते थे)।
छः बजे मंदिर की ओर निकल गए। एक- डेढ़ घंटे पूजा-अर्चना में लगे। सभी ने माँ काली से निर्विघ्न यात्रा पूरी होने की प्रार्थना की और चल पड़े।
पहाड़ी उबड़-खाबड़ रास्तों को पार करते पागल कर देने वाले प्राकृतिक सौंदर्य को निहारते हुए जवानों के संरक्षण में चलते-चले जा रहे थे। जवान और डॉक्टर्स थके से लगने वाले यात्रियों का हौंसला बढ़ाते चल रहे थे।
बीच-बीच में कुछ देर रुककर पीछे वाले यात्रियों के आने का इंतज़ार करते और थोड़ा विश्राम भी। दो बार जवानों ने चाय और चिप्स भी सर्व किए। उनकी सेवा के लिए तो शब्द भी कम पड़ जाएं।
लगभग 11 बजे के आसपास पहाड़ी ढलान पर ही पीछे आने वाले यात्रियों का इंतज़ार करते हुए बैठ गए। मैं और ज्योत्सना शर्मा लघुशंका के लिए आगे जाने लगे तो सिपाहियों ने हमें रोका बोले- ” अकेले आगे न बढ़ो” फिर फौरन ही हमारे बिना कुछ कहे वह हमारा मन्तव्य समझ गए और हमें पहाड़ी के पीछे को जाने का कहकर स्वयं उल्टी दिशा में मुड़ गए।
लौटकर आए तो सभी एक ही दिशा की ओर ताक रहे थे। सामने सामने दायीं ओर ’ऊँ’ पर्वत दिखायी दे रहा था। सब चिल्ला-चिल्लाकर एक दूसरे को इशारे से बता रहे थे। कु.मं. का गाइड और सिपाही सभी उस ओर इशारा कर रहे थे। कारण यह था कि ऊँ पर्वत हमेशा बादलों में ही ढका रहता है। कभी-कभी दर्शन होते हैं। लोग तीन-तीन दिन तक नवींढांग में डेरा डाले रहते हैं पर ज़रुरी नही कि दर्शन हो जाएं। हम भाग्यशाली थे कि यहीं से दर्शन हो गए।
बहुत देर तक जब सब निहारते रहे और फोटो लेते रहे तो जवानों ने आगे बढ़ने को कहा। साथ ही यह भी बताया कि अगर मौसम ठीक रहा तो नवींढांग तक ऊँ पर्वत पूरे रास्ते दिखायी देता रहेगा।
हम ऊँ पर्वत दिखायी देने की खुशी मन में भरकर आगे बढ़ गए। लगभग साढ़े बारह बजे नवींढांग पहुँच गए। देखते ही कु.मं. के कर्मचारियों ने ’ऊँ नमः शिवाय’ के साथ स्वागत किया और नमकीन छाछ पीने को दी।
एलओ ने वहाँ के इंचार्ज से सलाह करके सभी को कमरे और रूममेट निर्धारित किए। हम कल वाले यात्रियों के साथ ही ठहरे। यहाँ भी कालापानी की तरह ही अर्धवृत्ताकार डोम बने थे। फ़र्श पर मोटे-मोटे गद्दे लगे थे। सब अपना-अपना बिस्तर निश्चित करके वापस बाहर आगए।
बाहर धूप खिली थी। सामने ही ऊँ पर्वत अपने पूर्णाकार में स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। सभी अति प्रसन्न मुद्रा में अपने ऊपर भगवान की कृपा मानते हुए एकटक उधर ही देख रहे थे और अपने कैमरे में संजो भी रहे थे। हमने भी कुछ चित्र लिए।
धीरे-धीरे मौसम बदलने लगा और हमारे देखते-देखते ही ऊँ पर्वत पूरी तरह बादलों में छिप गया। पता भी न चल रहा था कि वहाँ कुछ आकृति भी थी, सब छटा बाद्लों के पीछे! बस धवल वितान!! वाह री प्रकृति तेरा भी क्या जादू है!!!
सभी आपस में बातचीत करते हुए भोजन के लिए बुलावे का इंतज़ार कर रहे थे। मैं भी सभी के साथ बैठी थी पर मुझे घुटन सी महसूस होने लगी। मन घबराया सा हो गया, पर मैं इग्नोर करती हुई बैठी रही।
भोजन तैयार होने की सूचना मिलते ही सभी भोजन कक्ष में इकट्ठे हो गए। कक्ष बहुत बड़ा नहीं था। एक बड़ी मेज पर खाना लगाया हुआ था। सब्जी, कढ़ी, दाल, रोटी, चाव, रायता खीर अचार इत्यादि गर्मागर्म भोजन, पर मैं अनईज़ी महसूस कर रही थी। भोजन-कक्ष से थोड़े से दाल-चावल थाली मे डालकार अन्य कुछ यात्रियों के साथ बाहर खुले में आगयी और थोड़ा सा खाकर जल्दी से स्नेहलता के साथ आकर बिस्तर पर सो गयी।
शेष यात्री कब कमरे में आए कुछ पता न चला, पर लगभग साढ़े तीन बजे एक एमीग्रेशन अधिकारी ने सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्र करने हेतु दरवाज़े पर खट-खट की तो आँख खुली। सहयात्री मधुप भी उनकी मदद कर रहा था सो सभी ने उसे ही अपने-अपने पासपोर्ट दे दिए। थोड़ी देर बाद उन पर एंट्री कराकर वह वापिस दे गया।
एक कर्मचारी ने लगेज तुलवाने के लिए कहा। पच्चीस किलोग्रा. से अधिक भार नहीं लेजाया जा सकता था। मैंने अगले दिन का सामान और कपड़े निकालकर लगेज पोर्टर से बंधवाकर निर्धारित स्थान पर पहुँचवा दिया।
शाम की चाय आगयी, मैंने चाय पी और बाहर आकर फ़ॉन-सुविधा के बारे में जानना चाहा। पता चला कि यहा~म का सैटेलाइअट फ़ोन तो काम नहीं कर रहा था, नीचे आयटीबीपी के कैंप में फ़ोन सुविधा थी। कैंप था तो गेस्टहाऊस के बिल्कुल नीचे ही पर रास्ता वहाँ थोड़ा घूमकर था। कई यात्री ढलान से शॉर्टकट से जाते दिखायी दिए। हालांकि वहाँ तारों की बाड़ लगी थी और एक सिपाही भी पहरे पर खड़ा था पर उसने तारों के नीचे से अंदर जाने दिया।
जवानों ने इतनी ऊँचाई पर चट्टानों को काट-काटकर समतल खेल का मैदान बना रखा था। खाली समय में सिपाही फुटबाल खेल रहे थे। हमारे कुछ यात्री भी शामिल हो गए थे खेल में।
मैं पूछते-पूछते उस कमरे तक पहुँच गयी जहाँ फ़ोन था। कमरा बहुत छोटा था। दो बिस्तर लगे थे जिनपर सिपाही लेटे हुए आराम कर रहे थे (यहाँ जवानों को पहाड़ो पर गश्त लगाकर ड्यूटी देनी होती है) कई यात्री पहले बैठे अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रहे थे।
हम महिला यात्रियों को देखकर सिपाही उठकर बैठ गए। हमारे बहुत मना करने पर भी वे एक ओर बैठ गए और हमें बैठने की जगह दे दी। सहयात्री प्रकाशवीर, के.के.सिंह और बालाजी के अलावा खंडूरी-दंपत्ती लाइन में थे। मैं, नलिनाबेन और श्रीमती बाद में पहुँचे। हमने सभी से छोटी बात करने या फिर हमें जल्दी फ़ोन करने देने का आग्रह किया। खंडूरी दंपत्ती के बाद के.के.सिंहजी ने हम तीनों को पहले फ़ोन करने दिया। हम बहुत जल्दी अपने-अपने घर फ़ोन करके बाहर आगयीं।
वहीं पता चला कि वहाँ डॉक्टर्स भी बैठे थे सो मैं और श्रीमती उनके कक्ष में सलाह लेने चली गयीं। डॉ. ने मेरा ब्लड-प्रेशर चैक किया पर बिल्कुल ठीक था। उन्होंने अधिक ऊँचाई पर होने के कारण घबराहट मसहूस होने की बात कही और मुझसे पूरा खाना खाने, अधिक पानी पीने और आराम करने की सलाह दी।
पौने सात/सात बजे रात का खाना लग गया क्योंकि अगले दिन सुबह दो बजे प्रस्थान करना था इसलिए रात को जल्दी सोना था। भोजन से पहले एलओ ने छोटी सी मीटिंग की। अगली सुबह सभी से कई लेअर्स में कपड़े पहनकर सिर से पैर तक ढकने और रैनकोट, टॉर्च और ड्राई-फ्रूट्स साथ रखने के लिए कहा।
पोनी पर चलने वालों को ठंड से बचने के लिए विशेष ध्यान देने के लिए कहा क्योंकि पैदल चलने वाले यात्रियों को चलने से गरमायी आजाती है पर पोनी पर हवा बहुत लगती है।
सभी जल्दी से खाना खाकर लगभग साढ़े आठ बजे बिस्तर में दुबक गए क्योंकि अगले दिन बहुत कठिन यात्रा थी। लिपुलेख पास पार करके तिब्बत में प्रवेश करना था। लिपुलेख का मौसम बहुत थोड़ी देर सुबह लगभग सात बजे (दो/तीन घंटे) तक ही ठीक रहता है। उसके बाद वहाँ बर्फीली आंधियाँ और बारिश होने लगती है। यात्रियों को निर्धारित समय-सीमा के अंदर ही लिपुलेख पास पार करना पड़ता है।
अगले दिन के रोमांच को मन में रखकर हम जल्दी सो गए।
क्रमशः


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