20/6/2010 सत्रहवाँ दिन
ज़ौंग्ज़ेबू/जुलुत्पू से दारचेन
कैलाश-परिक्रमा का तीसरा दिन
(दूरी 11.6किमी और ऊँचाई 4790किमी )
Zidulpuk/Zulthulpuk/Dzultripuk /Zongzerbu
(हमें नहीं मालूम कि कौन सही नाम और वर्तनी है)
सुबह तीन बजे उठकर दैनिकचर्या से निपटकर मैं सीधे रसोई वाले टैंट में पहुँच गयी। वहाँ श्रीमति और उनके पति ( हमारे ग्रुप के लीडर थे) पहले से पहुँचे हुए थे। हमने कुक की सहायता से पहले दोनों चूल्हों पर बड़े भिगोनों में पानी गर्म होने रखवा दिया। एक में चाय-चीनी इत्यादि डालकर चाय बनने रख दी दूसरे का पानी सहयात्रियों को पीने के लिए छोड़ दिया। जब चाय बन गयी तो दो कुक केतलियों में चाय लेकर कमरों मेंही सर्व करने चले गए।
इतने ही नलिनाबेन भी वहाँ पहुँच गयीं। हमने नाश्ते में मैगी और मीठी सैंवैंया बनवायीं थीं। अभी यात्री ठीक से तैयार भी न हुए थे कि भाई प्लेट और चमचा लेकर अहाते में बजाने लगे – “नाश्ता तैयार है” कुछ यात्री तो नाश्ता करने लगे पर कुछ ने “बहुत जल्दी है” कहकर टाल दिया।
एलओ और अन्य यात्री हमारे ग्रुप की तत्परता पर बहुत खुश थे। उन्होंने सभी यात्रियों को जल्दी करने को कहा।
पाँच बजे सभी यात्री तैयार थे। नाश्ता हो चुका था। रसोई का सामान पैक किया जा चुका था पर गुरु नहीं पहुँचा था। हम कमरे में जाने लगे तो देखा कि मेरी पोर्टर इतनी जल्दी आकर ठंड में मेरे कमरे के बाहर खड़ी मेरी इंतज़ार कर रही थी। मैंने उसे कमरे में बुला लिया और बैग देकर बैठने को कह वह बाहर चली गयी और अन्य पोर्टर के साथ मिलगयी।
इतने ही गुरु आता दिखायी दे गया। कुक ने बचाकर रखी चाय और नाश्ता उसे दिया और एलओ ने सीटी बजा दी। सभी यात्री प्रांगण में खड़े थे। सभी के चेहरे खिले हुए थे कैलाश-परिक्रमा निर्विघ्न पूरी जो हो गयी थी।
अशोककुमार जी ने शिव-वंदना करायी और प्रकाशवीर ने प्रत्येक दिन की तरह जयजयकार करवाया और सभी चल पड़े। दस मीटर पर ही पोनीवाली ने मुझे पोनी पर बैठा लिया और आगे बढ़ चले।
आकाश में बादल छाए हुए थे। सूर्य उदित नहीं हुए थे पर उनकी लालिमा बादलों को भी चमका रही थी। हवा बहुत ठंडी थी। नदी पर कहीं-कहीं मलाई की तरह बर्फ़ की पपड़ी जमी हुयी थी। नदी पार सामने गिद्ध के आकार में पर्वत शांत खड़ा विदाई दे रहा था। सभी अति प्रसन्न थे और चलते-चलते भोले शिव का नाम उच्चरित करते जा रहे थे। तभी हल्की-हल्की फुहार पड़ने लगीं और शीघ्र ही छोटे-छोटे तुषार के मोती के रुप में परिवर्तित होकर झड़ने लगीं। हम तो वाटर-प्रूफ़ जैकेट पहने हुए थे जिन्होंने नहीं पहन रखीं थी वे रुककर पहनने लगे। यात्री ज़ोर-ज़ोर से भोले के जयकारे लगा रहे थे।
कार्य पूर्ण होने पर मंद-मंद तुषार की वर्षा मानों शिव-शंकर प्रसन्न होकर मोती वर्षा रहे हों!! पैदल यात्री नाचने की सी मुद्रा में आगे बढ़ने लगे।
आधे घंटे में ही वर्षा और बर्फ़ पड़नी रुक गयी। आकाश बादलों से ढ़का रहा।
हम जोंगज़ेर्बू नदी के किनारे-किनारे दूसरी ओर कच्चे पहाड़ों के बीच समतल घाटी में प्रकृति के रुप को निहारते बढ़ते जा रहे थे। आज पोनीवाली भी निश्चिंत थी। उसने लगाम मुझे थमा दी थी और एक लड़के के साथ बातें करती चल रही थी। पोर्टर का तो अता-पता न था दौड़कर आगे निकल गयी थी। बहुत बचपना था उसमें।
साढ़े सात के आसपास पोनी वाली ने मुझे पोनी से उतार दिया। ऊँचाई पर नदी कि बिलकुल ऊपर रास्ता बहुत संकरा था सो सभी को पैदल चलना था क्योंकि लगभग देढ़/दो किमी के फासले पर हमारी बस खड़ी थी। हम तेजी से चलकर वहाँ पहुँच गए।
उस जगह पर काफ़ी भीड़ थी। पोनीवाले पोर्टर और प्रायवेट टूरिस्ट सभी थे। कुछ दुकानें भी थीं जिनपर चाय बिस्कुट और कोल्ड-ड्रिंक मिल रही थी।
हमारे पहुँचते ही पोर्टर ने दौड़कर हमें बैग पकड़ाया और हमसे लिपट गयी, इतने ही पोनी वाली भी आगयी। हमने दोनों को कोल्ड-ड्रिंक की बोतलें दिलवायी और कुछ युआन इनाम में दिए दोनों अति प्रसन्न हुयीं और हाथ-हिलाकर धन्यवाद करती हुयी दोनों एक ही पोनी पर चढ़कर चली गयीं।
साढ़े आठ बजे तक सभी यात्री बस तक पहुँच गए। एल ओ ने ग्रुप लीडर्स से गिनती करवायी, ओके मिलते ही ड्राइवर ने बस स्टार्ट कर दी। बस में सभी ने उच्चस्वर में एकसाथ ’बोलिए शंकर भगवान की जय’, ’बम-बम भोले’ का घोष किया तो बाहर खड़े प्रायवेट टूरिस्ट भी हमारे साथ जयजयकार करने लगे। बस चल पड़ी। रास्ते की नज़ाकत के साथ कभी धीमी तो कभी तेज गति पकड़ते हुए दस बजे पुनः दारचेन के उसी गेस्टहाऊस में जाकर रुक गयी।
दार्चेन पहुँचकर सभी यात्री नीचे उतर गए। जो यात्री परिक्रमा पर नहीं गए थे वे बस के पास आकर अभिवादन कर रहे थे। हमने स्नेहलता को गले लगा लिया और बीनामैसूर, रश्मी शर्मा और अन्य यात्रियों का हाल पूछा। सभी प्रसन्न दिखायी दे रहे थे।
एलओ ने पुराने कमरे न. ही सभी यात्रियों को बता दिए। मैं और नलिनाबेन अपना लगेज बंद कमरे से बालाजी को बता कर ले आए।
दोपहर का भोजन भी हमारे ग्रुप को तैयार कराना था सो पीछे कमरे में बनी रसोई में पहुँच गए। श्रीमती दाल चावल बनवाना चाहतीं थीं पर हम ने अन्य महिला यात्रियों से सलाह करके दाल-चावल, गोभी की सब्जी और रोटी बनाने का कार्यक्रम रखा। दो बड़े भिगोनों में अरहर की दाल और चावल कुक से धुलवाकर चढ़वा दिए और एक कुक से सामने खड़े होकर आटा गुथवाकर रखवा दिया। सब्जी बालाजी और मधुप ने काट कर धुलवा दी।
जब दाल बन गयी तो उसमें टमाटर का छौंक लगवाया और सभी महिला यात्री मिलकर रोटी बनाने लगे। रश्मी, खंडूरी, गीतबेन, स्मिताबेन सभी रोटियाँ बेल रहे थे और मैं और नलिनाबेन सेंक रहे थे। श्रीमति और उनके पति को परोसने और खिलाने की व्यवस्था का ज़िम्मा सौंप दिया।
सभी यात्री देशी घी लगी रोटी देखकर प्रफुल्लित होगए। तिब्बत आने पर पहली बार रोटी के दर्शन हुए थे। सभी प्रशंसा में कसीदे कस रहे थे। थोड़ी सी मेहनत से सभी ने रुचिकर भोजन खाया और तृप्त होगए।
खाना खाकर हमसब रसोई की सफ़ाई की जिम्मेवारी बिंद्राजी और अन्य राशन कमेटी के सदस्यों पर छोड़कर वापिस कमरे में आगए। वहाँ तिब्बती स्त्रियाँ तरह-तरह की मालएं, चूड़ीं, कड़े और अन्य आभूषण फैलाए बैठी थीं। वीनामैसूर, स्नेहलता, ज्योसना और नलिनाबेन उनसे मोलभाव कर रहीं थीं। और भी कई तिब्बती स्त्रियाँ भी वरांडे में सामान बेचती घूम रहीं थीं।
हम सामान देख रहे थे तभी स्मिताबेन आयीं और मुझसे नहाने चलने को पूछने लगीं। मैं नहाने की बात सुनकर चौंक गयी क्योंकि वहाँ तो कोई बाथ-रुम था ही नहीं। तब उन्होंने बताया कि बाहर मिलट्री एरिया में एक पार्लर है जहाँ युवान देकर नहया जा सकता था। मैं फौरन तैयार हो गयी। अपने कपड़े सोप,शैंपू निकाला और दोनों चल पड़े। रास्ता और दुकान की पहचान उनके पति ने बता दी थी।
हम गेस्टहाऊस से बाहर निकल कर सीधे हाथ को चलते चले गए। लगभग ढ़ाई सौ मीटर चलने पर एक दरवाजे पर दस्तक दी। एक सजी-धजी महिला ने दरवाज़ा खोला। वह हमारे हाथ में कपड़े इत्यादि देखकर हमारा मन्तव्य समझ गयी और मुखातिब होकर पूछने की मुद्रा में बोली- बादरूम? हमदोनों ने हाँ में गर्दन हिला दी। यह तो अच्छा है कि इशारे की भाषा एक सी होती है 🙂
वह हमें अंदर ले गयी और सामने पंक्ति में बने बाथरूम खोल दिए। साधन-पूर्ण स्वच्छ बाथरुम। ठंडा और गर्म दोनों पानी आरहे थे। हम दोनों एक घंटे तक नहाकर बाहर निकले, बिल चुकता किया और गेस्ट-हाऊस में आ गए। १६ जून को तकलाकोट में नहाने के बाद आज चौथे दिन स्नान-सुख मिला।
थोड़ी देर आराम करके शाम को घर फोन करके पवित्र-कैलाश की परिक्रमा पूर्ण होने की खबर दी और रश्मि खंडूरी के साथ जाकर कुछ खरीददारी की। वापिस आकर चाय पी और मजे से बिस्तर पर लेट गए।
रात के खाने की जिम्मेवारी अन्य ग्रुप की थी। खिचड़ी और अचार मिला। सभी ने खुशी-खुशी खाया। एलओ ने मीटिंग में बताया कि अगले दिन सात बजे बस में मानसरोवर-परिक्रमा हेतु झील के किनारे कुगु फनिहंध जाना था। हम अपना लगेज पैक करके सुबह आराम से उठने के लिए गहरी नींद सो गए।