Archive for the ‘Navindhang to Kalapani’ Category

नवींढांग से काला पानी

मई 30, 2011

भोले के जयकारे के साथ सवा ग्यारह बजे हम कालापानी के लिए चल पड़े। सुबह से थके हुए थे, खाना खाने के बाद शरीर और आलस्य से भर गया था; पोनी पर बैठे-बैठे ही नींद आरही थी। बड़ी मुश्किल से पोनी पर बैठी हुयी थी। पोर्टर और पोनीवाला बड़ी उत्सुकता से यात्रा का हाल पूछ रहा था, मैं बार-बार उबासी लेती हुई उन दोनों से बात करती अपनी नींद को भगा रही थी।
नदी किनारे दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और घाटी तेरह दिन में ही मौसम अपना रंग दिखा चुका था। हरियाली पनपने लगी थी, कहीं-कहीं पहाड़ों के ढलान पर रंगबिरंगे छोटे-छोटे फूल भी खिल रहे थे। जिनको देखकर भी मैं अपना आलस्य भूल जाती थी।
डेढ़ /दो बजे के करीब हम कालापानी पहुँच गए। काली माँ के मंदिर में दर्शन किए और मस्तक झुकाया जिनकी कृपा से यात्रा निर्विघ्न पूरी हुयी। शाम को मंदिर में भजन और आयटीबीपी के जवानों की ओर से हमारे दल के लिए रात्रि-भोजन (बड़ा खाना) का आयोजन था। सो शाम को पुनः आने की सोचकर जल्दी कैंप में आगए।
जाते समय जैसे ठहरे थे उसी अनुसार कमरों में ठहर गए। थकान के कारण हालत पस्त थी हालांकि चाय आयी थी पर मना करके बिस्तर में पड़कर सो गए।
चार बजे गर्म सूप लेकर निगम कर्मचारी आया तो सबकी आँख खुलीं। सूप पीकर ताज़गी आयी तो उठे और बाहर पड़ा लगेज अंदर रखा। हाथ-मुंह धोकर तैयार होकर बाहर आए तो देखा मौसम बदल चुका था। गहरे घिरे बादलों ने अंधेरा सा कर रखा था। बूंदाबांदी भी होकर चुकी थी।
मैं,स्नेहलता, नलिना, गीताबेन, स्मिताबेन इत्यादि मंदिर जाने के लिए बाहर आगए, थोड़ी देर खड़े होकर बराबर में बहती नदी के अनियंत्रित वेग को देखते रहे। ढलान पर बहने के कारण नदी बहुत तेज बह रही थी।
साढ़े पांच बजे मंदिर चले गए। जैसा कि हम पहले भी उल्लेख कर चुके हैं मंदिर को देखकर सुखद आश्चर्य होता है! कितनी मेहनत नज़र आती है वहाँ! इतनी असामान्य परिस्थितियों में इतना प्रबंधन!
मंदिर में भजन-संगीत बज रहा था जो पूरे पर्वतीय क्षेत्र में गूंज रहा था, पूजा की तैयारी चल रही थी। एक जवान आरती सजा रहा था तो दूसरा जल का कलश भरकर ला रहा था, बाहर बड़े-खाने की तैयारी में कई सारे सिपाही जुटे थे। इसतरह बहुत से जवान लगे थे तैयारी में।
मंदिर में फ़र्श पर लालकालीन बिछा था। पास में ही ढोलक, मंजीरे, चिमटा और माइक रखे थे। हमसब जाकर कालीन पर बैठ गए। धीरे-धीरे सभी यात्री और एलओ भी पहुँच गए। कई सिपाही भी आकर बैठ गए। और स्वयं डिप्टी कमांडर इन चीफ़ भी आकर बैठ गए।
देश की रक्षा में बंदूक तानने वाले जवानों को ढोलक, मंजीरे और चिमटा बजाकर भजन गाते देखकर मन खुशी से भर जाता है। कोई माने या न माने पर हमने मन ही मन भगवान गौरी-शंकर से उन सभी जवानों को यूंही हंसते गाते रहने की कृपा करते रहने की प्रार्थना की। बड़े भाव और चाव से सिपाही तनमय होकर भजन गा रहे थे। कुछ यात्रियों ने भी भजन सुनाए। गुजराती बहनों ने मिलकर नृत्य भी किया।
साढ़े सात बजे आरती हुई। श्री चौधरी और एलओ के बाद सभी यात्रियों ने आरती उतारी और प्रभु को नमस्कार किया। उसी समय सभी यात्रियों ने अपनी-अपनी श्रद्धा से मंदिर में रखी गुल्लक में धन राशि डाल दी थी। जवानों द्वारा तैयार सूजी के हलवे का भोग लगाया गया। श्री चौधरी ने प्रत्येक तीर्थयात्री को स्वयं प्रसाद बाँटा।
मंदिर के बिलकुल बाहर काली नदी के तट पर बड़ी रौनक थी। लाइटिंग की गयी थी और कुछेक कुर्सियाँ लगीं थीं। सामने ही डाइनिंग रुम था जहाँ बड़े मेजपर खाना लगाया गया था। पूरी, कचौड़ी, छोले, पनीर, सब्जी दाल, नान, पुलाव खीर और न जाने क्या-क्या!!!
जवान स्वयं परोसकर दे रहे थे। आतिथ्य करना तो कोई उनसे सीखे। शब्द नहीं है मेरे पास उनके सेवा-भाव वर्णन करने के लिए। बस महसूस किया जा सकता था।
खाना खाते-खाते नौ बज गए थे। रात के साथ ठंड़ भी बढ़ रही थी। हम सब ने हाथ जोड़कर जवानों का आभार प्रकट किया और शुभकामनाएँ देकर उनसे विदा ली और अपने कैंप की ओर मुड़ गए।
अगली सुबह सात बजे निकलना था सो निश्चिंत होकर आराम से रजाई में घुसकर सो गए।