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गाला से बुद्धि

अप्रैल 25, 2011

गाला से बुद्धि (दूरी 20किमी. बुद्धि की ऊँचाई 2740 मीटर)
(10/6/2010 सातवाँ दिन)
(इस दिन की यात्रा के तीन चरण थे, गला > लखनपुर>मालपा>बुद्धि)
प्रथम भाग
गाला से लखनपुर (4444 सीढ़ियाँ पार करके)
प्रातः दो बजे मेरी आंख खुली तो देखा सब खर्राटे मारकर सो रहे थे। मैं कुछ देर बिस्तर पर ही बैठी रही। फिर सोचा उठ ही लिया जाए, क्योंकि उस कमरे में तेरह लोग ठहरे हुए थे और बाथरुम-लैट्रिन एक ही था, जिसमें एक ब्लैक टंकी में पानी भरा था एक मग और एक बहुत छोटी सी बाल्टी रखी थी। न टैप न टोंटी और न वाश-वेसिन।
मैं बहुत धीरे से उठी और टॉर्च की रोशनी में मोमबत्ती और माचिस निकालकर रोशनी की और अपने टूथ-ब्रश एवं पेस्ट इत्यादि निकाल कर मोमबती सहित बाथरुम में घुस गयी।
पानी इतना ठंडा था कि हाथ डालने में भी ठंड लग रही थी। पर सब काम करने थे सो कर लिए। बड़ी हिम्मत करके दो छोटी बाल्टी पानी शरीर पर भी डाल लिया 🙂 पानी पड़ते ही मन हुआ कि ज़ोर से चीखूं पर अन्य यात्री उठ न जाएं इस डर से चुपचाप रही, दम घुटा सा होने लगा था फिर भी उफ़ न की 🙂
मैंने तैयार होकर मोमबत्ती बुझा दी और पुनः बिस्तर में बैठकर ’ऊं नमः शिवाय’ का जाप करने लगी। तभी कल रात आयीं बीमार यात्री उठ गयीं और बाथरुम की ओर जाने लगीं। मैंने मोमबत्ती जलाकर बाथरुम में रखदी और उन्हें अंदर भेज दिया। वापिस आने पर उन्हें बिस्तर में लिटाकर पुनः अपने बिस्तर पर जा बैठी तो देखा तीन बजे थे मुझे बहुत ठंड लग रही थी और चाय की हुड़क भी उठ रही थी पर ’अभी बहुत रात है’ ऐसा सोचते हुए पुनः लेट गयी और कब नींद आ गयी पता ही नहीं।
लगभग साढ़े चार बजे चाय आयी तो स्नेहलताजी जो मेरे पास वाले बिस्तर पर सोयीं थीं ने मुझे हिलाया और बोलीं, ’प्रेमलताजी तबियत ठीक है जो अभी तक सो रही हो ? चाय ले लो, सब तैयार हो रहे हैं तुम भी उठ जाओ देर हो जाएगी’
जब मैंने उन्हें बताया कि मैं तैयार होकर सो रही हूँ तो उनका आश्चर्य भरा मुख देखने लायक था 🙂 वह मुझे अपना कंबल उढ़ाकर बड़े प्यार से सोने के लिए कहने लगीं पर मैं जाग रही थी।
जब सब तैयार हो गए तो मैंने फुर्ती से उठकर अपना बैग संभाला, जूते पहने और बेंत लेकर सभी के साथ बाहर आगयी। सभी के पोर्टर भी वहीं खड़े थे। मेरे पोर्टर ने देखते ही मेरा हैंड बैग मुझसे ले लिया।
एलओ सीटी बजाकर सभी को बुला रहे थे। एक मेज पर बोर्नबिटा मिला दूध रखा था। सभी अपनी ज़रुरत के हिसाब से पी रहे थे। मुझे दूध-प्रोड्क्ट पचते नहीं सो थोड़ा सा लिया।
जब सभी यात्री एकत्र हो गए तो एलओ ने आज की यात्रा के पड़ाव निश्चित किए और शिव-वंदना के साथ चलने को कहा।
पोनी थोड़े आगे मिलने थे सो यहाँ से सभी को पैदल ही निकलना था। ’जय भोले की’ बोलते हुए सभी आगे बढ गए।

थोड़ी दूर पर ही मेरा पोनी मिल गया, मैं लपककर चढ गयी, बेंत पोर्टर को थमा दिया,
यहाँ पहाड़ी रास्ता बहुत ही संकरा था। पैदल चलने में चारों ओर देखना मुश्किल हो जाता है। संतुलन बनाकर चलें या फिर सौंदर्य देखें! पर मुझे पोनी पर कोई दिक़्क़त नहीं होती। पोनी चलाने की जिम्मेवारी पोनीवाले की होती है, यात्री तो बस बैठने में संतुलन बनाता है 🙂
चारों ओर सुंदर दृष्यों को देखते हुए और साथ चलती काली नदी की डरावनी लहरों का तांडव देखते हुए आगे बढ़ने लगे।
अब आसमान साफ़ हो गया था। धूप निकल आयी थी। जब कोई चट्टान नीचे झुकी हुयी आती तो पोनीवाला नीचे उतारकर पोर्टर के साथ चलने को कहता और पोर्टर भी बड़ी जिम्मेदारी से बेंत मुझे देकर साथ-साथ चलता। इतना ही नहीं अत्यधिक संकीर्ण पगडंडी पर वह मुझे पहाड़ की ओर और स्वयं नदी की ओर होकर निकालता था। मेरा पोर्टर बहुत अनुभवी था। उन्नीस सौ तिरासी से पोर्टर है।
झुकी चट्टान हटने पर पुनः पोनी पर बैठ जाती इस तरह कठिन पहाड़ी मार्ग पर चलते-चलते हम लगभग साढ़े नौ बजे लखनपुर गांव में पहुँचे तो पोनी वाले ने नीचे उतार दिया। पास में ही एक झोंपड़ी सी में हमारे नाश्ते का प्रबंध था। गर्मा-गर्म छोले और पूरी!
घर में तली हुयी चीजें खाने से बचने वाले सभी यात्री इतने थके और भूखे थे कि टूट पड़ रहे थे नाश्ते पर। पीने के लिए चाय और गर्म पानी भी था। पोनीवाला और पोर्टर सामने बनी झोंपड़ी में जाकर नाश्ता-पानी करने लगे। यात्री आ रहे थे, खा रहे थे और जा रहे थे।
मैं नाश्ता करके लघुशंका के लिए जगह तलाशने लगी पर कोई निश्चित स्थान नहीं था। जंगल, पहद और उफनती नदी! मैं डरती-डरती काली नदी की ओर थोड़ा नीचे उतरकर झाड़ियों की ओर जाकर अपने को निवृत कर आयी। अन्य महिला यात्री भी वहीं जाने लगीं।
वापिस आकर पोनी के बारे में पूछा तो पता चला कि अब आगे पोनी बहुत देर बाद मिलेगा। अब पैदल ही चलना होगा। रास्ता बहुत कठिन था। चार हजार चार सौं चौबालीस सीढ़ियाँ उतरनी थीं।
मैं भोले का नाम लेकर हर सीढ़ी पर ’ऊं नमः शिवाय’ का उच्चारण करती एक हाथ में बेंत पकड़कर संतुलन बनाती पोर्टर के साथ चल पड़ी।
ये सीढ़ियाँ क्या मानों पत्थरों को फेंक-फेंककर बनायी हुई सीढ़ियाँ हों। देखने में तो उबड़-खाबड़ टेढ़े-मेढ़े, छोटे-बड़े पत्थर बेतरतीब पड़े थे। फिर भी …
उतरते-उतरते घुटने दर्द कर रहे थे, पत्थर पर पैर रखते हुए कभी-कभी संतुलन नहीं बनता था तो पोर्टर हाथ पकडकर उतारता था। कभी बायीं ओर पत्थर ठीक लगता था तो वहाँ पैर रखते और कभी दायीं ओर तो वहाँ पैर रखते हुए नीचे उतर रहे थे, तब भी ग़लत पैर रखने पर गिरते-गिरते बचती थी और पोर्टर की डांट भी खाती थी -’कहना नहीं मानती हो’। मैं मुस्करा देती और आगे बढ़ने लगती…
सीढ़ियाँ थीं कि कभी खत्म न होने वाली उतराई थी! जब भी पोर्टर से पूछती कि कितनी सीढ़ियाँ और हैं तो व हर बार एक ही जवाब देता-’थोड़ी और हैं।’ 🙂