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बुद्धि से धारचूला

जून 1, 2011

30/6/2010 सत्ताइसवाँ दिन
बुद्धि से धारचूला
बुद्धि>मालपा>लखनपुर>जिप्ती> मंगती>धारचूला(वाया तवाघाट)

मैं और स्नेहलता चार बजे उठ गए। लाइट नहीं आ रही थी सो हमने कमरे में मोमबत्ती जलाकर रोशनी करली और टॉर्च लेकर बाहर टॉयलेट की ओर चले गए। बाहर अन्य कमरों के यात्री भी दिखायी दिए। बाथरुम के बिलकुल सामने चूल्हे पर पानी गर्म हो रहा था कई यात्री पानी ले जा रहे थे।
हम दोनों ने भी फुर्ती दिखायी और गर्म पानी लेकर नहा लिए। कमरे में जाकर सभी को गर्म पानी की सुविधा बता दी। नलिनाबेन भी जल्दी से नहा लीं। शेष ने गर्म पानी से हाथ मुंह धो लिए।
तैयार होकर हम साढ़े पाँच बजे रसोई के आगे जाकर खड़े हो गए, जहाँ एलओ सहित कई यात्री खड़े रस्क के साथ चाय/कॉफ़ी पी रहे थे। हमने भी चाय पी और वहीं मुंडेर पर बैठ गए। मेरा पोर्टर भी वहीं पहुँच गया था मैं अपना बैग उसे थमाकर निश्चिंत हो गयी।
आकाश में बादल घिरे हुए थे, अब बरसे, तब बरसे जैसे लग रहे थे। सभी यात्री पहुँच गए तो एलओ ने प्रस्थान का इशारा कर दिया था, पर देखते-देखते हल्की-हल्की बारिश शुरु हो गयी। पर कुछ को छोड़कर सभी ने भोले का नाम लेकए बुद्धि-कैंप छोड़ दिया।
अभी सौ मीटर भी न गए होंगे कि मूसलाधार बारिश होने लगी। रास्ते में पहाड़ों से बहकर आता पानी इतना तेज बह रहा था कि कोई भी उसके साथ बह सकता था। जो जहाँ था वहीं खड़ा हो गया। आधे घंटे में बारिश हल्की हुयी तो पुनः चलना प्रारंभ किया।
बारिश से फिसलन और पहाड़ों से आता बारिश का पानी बहुत कठिनाई उत्पन्न कर रहे थे। बरसाती पहने होने से शरीर तो भीगने से बच गया था पर जूते और मोजे बिलकुल लथपथ थे, मैं एक हाथ में बेंत लिए पोर्टर के साथ-साथ पैर जमा-जमाकर पानी में फचफच करती आगे बढ़ती गयी।
थोड़ा आगे जाकर पोनी वाले खड़े थे जिन्होंने अपने-अपने यात्री बैठा लिए, पर मेरा पोनीवाला आज भी नदारद था। पोर्टर ने चलते रहने की सलाह दी ताकि पोनीवाला आगे खड़ा हो तो मिल जाएगा।
सभी यात्री आगे निकल गए मैं काफ़ी पीछे रह गयी। लमारी से थोड़ा सा पहले पोनीवाला पीछे से मेरे पास आया और कहने लगा कि वह कैंप के पास खड़ा था। पता नहीं झूठ कह रहा थ या सच। मैं पोनी पर बैठकर आगे बढ़ गयी।
धीरे-धीरे मौसम साफ़ होने लगा था पर रास्ते में कींचड़ तो जस की तस थी। बीच छतरी झरना पड़ा पर हम कहीं रुके नहीं हाँ छतरी झरने से पहले की अपेक्षा कहीं अधिक पानी बह रहा रहा था।
रास्ता जाते समय से भी कठिन लग रहा था। जगह-जगह से पगडंडी टूट रहीं थीं किसी-किसी जगह एक-डेढ़ फुट जगह ही पैर रखने की थी और बिलकुल नीचे चिल्लाती काली कालरुपा बनी और भी ज़्यादा उफ़न रही थी तो कहीं पहाड़ों से गिरते झरनों के बीच से जाना पड़ रहा था। हाँ हर कदम पर आयटीबीपी के जवान हमसब की सहायता के लिए अवश्य मिल रहे थे।
शिव का नाम लेते लेते मालपा तक पहुँच गए। वहाँ हमारे दल के नाश्ते का प्रबंध था। हम पोनी से उतरकर नाश्ते वाली जगह पर पहुँचे तो वहाँ एलओ और अन्य यात्री भी नाश्ता कर रहे थे। गर्म-गर्म छोले पूरी। एलओ ने बताया कि जिप्ती से रास्ता बहुत कठिन था। गिरे हुए पहाड़ की चट्टानों पर से उतरना था, सो रश्मि शर्मा और वीना मैसूर जो पैदल बिलकुल नहीं चल सकती थीं, को आगे गाला तक घोड़े पर जाने की सलाह दी उन्होंने उनके लिए निगम से कहकर वहाँ गाड़ी बुलवायी थी।
हम नाश्ता करके पोर्टर के साथ पैदल चल पड़े क्योंकि नदी का पुल पार करके आगे जाकर पोनीपर बैठा जा सकता था।
पुलपार करके कभी पोनी पर तो कभी पैदल चलते हुए लखनपुर की 4444 सीढियाँ चढ़ने पहुँच गए। पोनी वाले ने सीढियों पर ले जाने से मना कर दिया और हमसे अलग चलने लगे। हम सीढ़ी चढ़ते से ही दमा के रोगी से हो गए। सांस घुट रही थी। हालांकि आयटीबीपी के जवान भी साथ-साथ ही चल रहे थे।
मैं, गीताबेन, स्मिताबेन, चंद्रेशभाई और दीपकभाई सभी साथ-साथ थे और हम सब ने पोनी हायर किए हुए थे। पर सभी पैदल चलकर बुरे हाल में थे। तब आयटीबीपी के जवान ने पोनी वालों से हमसब को पोनी पर बैठाकर सीढ़ियाँ चढ़ाने को कहा। एक-एक करके पोनी वाले हमें पोनी पर बैठाने लगे। मेरा पोनी वाला बहुत अनुभवी नहीं था सो पहले तो थोड़ा डर रहा था। बाद में बैठा लिया।
सीढ़ियाँ पार करके कुछ आगे जाकर अस्कोट(जिप्ती) के पास पोनी वालों ने हम सब को उतार दिया। थोड़ा नीचे उतरकर गेस्ट-हाऊस बना था जहाँ हमारे दोपहर के भोजन का प्रबंध था।
एक छोटे से कमरे में एक बड़ी मेज के चारों ओर कुर्सी लगीं थीं। हम हाथ धोकर खाना खाने बैठ गए। एलओ, बालाजी और बिंद्राजी भी पहुँच गए।
हमने खाना खाया और सभी साथ पैदल निकल पड़े। कुछ दूर जाकर पोनी वाले ने पोनी से उतार दिया और आगे रास्ता न होने की बात कहने लगा। हमने बिंद्राजी से पूछा तो उन्होंने बताया कि आगे पोनी नहीं जा सकते थे सो हमने उसका हिसाब चुकता कर कुछ रुपए इनाम बतौर देकर विदा कर दिया।
हमने पोर्टर से रास्ता पूछा तो उसने हमारे सामने फैले गिरे हुए पहाड़ की फैली चट्टानों की ओर इशारा कर दिया। हम देखकर अवाक रह गए क्योंकि वहाँ न कोई पगड़ंडी थी और न कोई रास्ता। यह मंगती जाने के लिए शोर्टकट था। सारे में पहाड़ के बड़े-बड़े पत्थर पड़े हुए थे जिन पर चढ़कर/उतरकर हमे नीचे मंगती तक जाना था पर कोई और विकल्प भी न था। हम मन ही मन सोचने लगे कि एलओ ने सभी को गाला के रास्ते से क्यों नहीं भेज दिया?
मैं और अन्य यात्री अपने-अपने पोर्टर के साथ चट्टानों से उतरने लगे। बड़े-बड़े पत्थर जिन पर पैर रखते ही हिलने लगते। मोड़ पर कई बार फिसलते से पोर्टर ने बचाया। गिरा पहाड़ इतना फैला हुआ था कि समाप्त होने का नाम न ले रहा था। ढाई बजे जब गर्वा का स्कूल दिखायी दिया तो हमें सकून आया कि अब रास्ता हो सकता है। तीन घंटे लगातार बिना रुके उन चट्टानों से उतरना बड़ा कठिन लगा तब खीं जाकर मंगती की सड़क दिखायी दी जिस पर एक जीप खड़ी थी जिसमें कई सहयात्री बैठे थे। हमारे एलओ भी वहीं साइड में खड़े थे।
हमारा पोर्टर भी धारचूला के पास का ही था सो उसे स्थानीय बस में जाना था हम उसे धारचूला गेस्ट-हाऊस में पहुँचकर मिलने का कहकर लपक कर बिना किसी के कहे जीप में जाकर बैठ गए, इस तरह हमारी पोनी पर और पैदल यात्रा पूरी हुई; आगे तो वाहन से ही जाना था।
मिट्टी से भरी टूटी सड़क पर भागती जीप में बैठकर शरीर और पस्त हो गया। सभी यात्री बहुत कष्टमय थे पर क्या करते।
पाँच बजे जीप धारचूला के गेस्ट-हाऊस के आगे रुकी हम रिसेप्शन से चाबी लेकर अपने कमरे में गए। हाथ-मुंह धोया और बिस्तर पर लेट गए।
थोड़ी देर में नलिना आगयी जिन्होंने बताया कि नीचे लस्सी और चाय दोनों का प्रबंध था। हमने नीचे किचेन से लेकर चाय पी और बिस्किट खाए।वहीं हमने अपना असली पोर्टर (ज्ञान का पिता) भी मिल गया। हमने उसे अपना कमरा न. बताया और अपना हिसाब कर रुपए लेजाने को कहा।
तभी हमारे लगेज का ट्रक भी पहुँच गया। बारिश के कारण लिखा हुआ सब मिट गया था सो अपना बोरा पहचानने में नहीं आ रहा था। किसी-किसी तरीके से पहचान कर हमने पोर्टर से लगेज अपने कमरे तक पहुँचवा दिया और उसे उसके हिसाब के पैसे के अलावा ग्यारह सौ रुपए बतौर इनाम दिए। वह बहुत खुश हुआ और कहने लगा कि उसका घर बहुत पास ही है वह सुबह विदा करने भी आएगा।
रात को भोजन-कक्ष में सब हंसी-खुशी मिले, शिव-वंदना करके खाना खाया और अगले दिन सुबह साढ़े छः बजे मिनि बस से प्रस्थान करने के लिए कमरे में आकर सो गए।