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डेरापुख में चरण-स्पर्श तक

मई 17, 2011

…18-जून-2010( पँद्रहवां दिन)
तृतीय अंतिम चरण
कैलाश-चरण-स्पर्श – अद्भुत-अलौकिक अनुभव
समय दोपहर एक बजे
( यह एक दिन की दार्चेन से डेरापुख की यात्रा का तीसरा चरण है)

हमें पता चला कि वहाँ न तो गाइड साथ जाएगा और न पोर्टर सो हम अपनी सोटी थामकर थोड़ा सा ड्राईफ्रूट और एनर्जी-ड्रिंक के दो डिब्बे जेब में रखकर भगवान शिव का धयान करके जाने के लिए तैयार हो गए।
श्रीमति, खंडूरी दंपत्ती, बिंद्राजी और मैं अन्य यात्री अन्य यात्रियों का अनुकरण करते हुए कैलाश-पर्वत की ओर से बहकर आरही जलधारा के किनारे-किनारे पहाड़ी पर चढ गए।
थोड़ा आगे जाने पर ही देखा कि जल धारा बिल्कुल कठोर बर्फ़ बनी हुयी थी और किनारे पर कोई रास्ता नहीं था पहाड़ी खड़ी ढ़लान वाली थी। हम बेंत के सहारे मानों दीवार पर चल रहे हों। अबगिरे और तब गिरे सोचते हुए बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच से निकलते पहाड़ी दर पहाड़ी न जाने कितनी पहाड़ी पार करते आगे बढ़ते गए।
आगे जाने वाले सहयात्री दूर पहाड़ी पर दिखायी न देते तो हम समझते कि वे लोग अभीष्ट-स्थान पर पहुँच गए होंगे, पर थोड़ी ही देर में वे दूर पहाड़ी पर बौने जैसे चढ़ते दिखायी देते तो हम समझ जाते कि अभी बहुत आगे जाना था।
चलते-चलते एनर्जी-ड्रिंक के दोनों डिब्बे समाप्त हो गए, गला सूखने लगा पर चरण-स्पर्श का कुछ पता नहीं। जितना आगे जाते उतना ही और रास्ता कठिन होता जा रहा था। शिलाओं पर कूदते-फांदते डर भी लग रहा था कि कहीं संतुलन न बिगड़ जाए, पर ’ऊँ नमःशिवाय’ का जाप करते बढ़ते जा रहे थे।
बहुत ऊपर पहुँचने पर धवल कैलाश-धाम रजत किरणे विकिर्ण कर रहे थे। हम उस आकर्षण में साँस घुटने पर भी चलते-चले जा रहे थे।
हमें निंबाडियाजी की एक सांस एक कदम बढ़ाने की युक्ति हर पल आगे बढ़ा रही थी पर सूखता गला बहुत रुकावट डाल रहा था। यूं सूर्य की गर्मी से जलधारा किनारों से पिघलकर बह रही थी पर उस तक पहुँचने में इतनी कठिनाई थी कि हिम्मत न हो रही थी पानी भरकर पीने की। बहुत फिसलती ढलान और चट्टानें डरा रहीं थीं।
रास्ते में कई सहयात्री थककर बैठे मिले तो कई शिलाओं पर सोए हुए। बिंद्राजी और रश्मि-खंडूरी भी प्राण हाथ में लिए बैठे थे, जब हम मुँह फाड़े ज़ोर-ज़ोर से सांस लेते उनके पास तक पहुँचे तो उन्होंने हमें भी बैठने की सलाह दी पर हमने इशारे से खड़े होने से भी मना कर दिया, क्योंकि हमें पता था कि अगर हम रुक जाते तो आगे न बढ़ पाते और के.के,सिंह की तरह किसी शिला पर खर्रांटे मारने लगते। हमारे न रुकने पर बिंद्राजी और रश्मि भी खड़े हो गए।
हमारी शक्ति, हमारे थके दर्द करते पैर और सूखता गला हमें वापिस होने के लिए कह रहा था पर हमारा मन अपनी शक्ति पर आश्वस्त और आसक्त आगे बढ़ने की कह रहा था हम मन की बात मानते हुए आगे बढ़ते रहे।
लगभग पौने चार बजे तक अनवरत एकदम खड़ी चढ़ाई (जिस पर कोई ट्रैक न था,) करते प्रकृति के बेढ़ब रास्तों को छानते जब मुझे सामने कैलाश-पर्वत के बिल्कुल नीचे बैठे कुछ यात्री दिखायी दिए तो मैं समझ गयी कि भोले के धाम में प्रवेश और स्पर्श की अनुभूति बहुत निकट थी पर पहुँचना शेष था।
कुछ दूर जाने पर एक बड़ी शिला पर एलओ बैठे मिले। हमें देखकर मुस्कराकर’ बस पहुँच गए’ कहने लगे।
मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मैं इतने कठिन और जोखिम भरे रास्ते पर बढ़ रही थी!! सामने कैलाश-पर्वत वृहदतम-मणि के सदृश दैदिप्यमान हो रहे थे। जो यात्री वहाँ बैठे थे ने देखते ही भोले शिव के जयकारे लगाने शुरु कर दिए और स्वागत की मुद्रा में आह्वान करने लगे। पूरी यात्रा में हम कैलाश के सबसे निकट यहीं होते हैं जब उन्हें स्पर्श कर सकते हैं।
मैंने आगे बढ़कर घुटनों के बल बैठकर कैलाश के चरण अपने मस्तक से स्पर्श किए। हाथों से भी स्पर्श करके मस्तक और हृदय से लगाए और साष्टांग दंडवत हेतु पिघले हिमाच्छादित पत्थरों पर लेट गयी। स समय कुछ क्षणों के लिए मैं अपने को भूल गयी, शरीर का भान न रहा, संसार की कोई इच्छा मुझे याद न रही मैं दिव्य शांति अनुभव करती हुयी अलौकिक-भाव से भर गयी।
फिर खड़ी होकर दोनों हाथ पसार कर कैलाश-आलिंगन किया, भावुकता आँखों से बह रही थी, वाणी और ध्वनि भी शांत थीं।
पुनः वहीं बैठकर कुछ पलों के लिए ध्यानस्थ होकर प्रभु से एकाकार किया और अपने धाम बुलाने जैसी असीम कृपा को बनाए रखने की प्रार्थना करते हुए, जीवन में जाने-अनजाने हुयीं त्रुटियों के लिए क्षमा मांगते हुए सभी के लिए सुख-शांति की याचना की।
प्रभु से हाथ जोड़कर क्षमा मांगते हुए उनके धाम का प्रसाद एक छोटा सा हिमकण मुंह में रख लिया। मैं अद्भुत क्षणों में अपने पर विश्वास न कर पा रही थी कि सच में वहाँ थी या कोई स्वप्न था। सभी को देखकर सोच रही थी कि सच में मैं कैलाशपर्वत के चरणो में खड़ी थी।
यहाँ कैलाश का दृश्य अनोखा था। विशाल विस्तार में धवल हिममंडीत छोटी-छोटी पर्वत-मालाएं अपनी ओर खींच रहीं थीं। हमरे देखते-देखते ही बर्फ़ पर अनेक आकार जनम ले रहे थे। एकटक निहारने पर भी मन भरता नहीं था। हम लगभग एक घंटे वहाँ रुके और अलौकिक अनुभूति को संजोकर वापिस हो लिए।
मैं अशोककुमार, बालाजी, श्रीमति, चैतन्य, और अमर इत्यादि कई यात्री एक साथ वापिस आरहे थे।
रास्ते में एलओ वहीं बैठे थे जहाँ हम उन्हें छोड़कर गए थे शायद वह हम सब यात्रियों के वापिस होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। हम सब को देखकर उन्होंने सकुशल सुंदर दर्शन होने की बधाई दी और शेष वापिस होने वाले यात्रियों के बारे में जानकारी ली। जुनेजा के साथ वापिस आने की बात सुनकर वह आश्वस्त हो गए और हमसब के साथ वापिस होने लगे।
कुछ ही आगे नागराज को देखकर एलओ ने सभी का एक ग्रुप-फोटो लेने कहा, हम सब एक बड़ी शिलापर पोज़ बनाकर खड़े होगए। नागराज ने अपने कैमरे से ग्रुप फोटो लिए तो हमने अपना कैमरा भी ओन करके सहयात्री से ग्रुपफोटो खिंचवा ली।
चढ़ाई से अधिक उतरना कठिन हो रहा था। कहीं-कहीं तो पैर रखने तक का स्थान समतल नहीं था। एक-एक क़दम जमकर रखते हुए नीचे उतरते रहे। कुछ यात्री आगे निकल गए तो कुछ फोटो लेते पीछे रह गए।
मैं अकेली छड़ी के सहारे पिघली जलधारा पर पड़ी बड़ी-बड़ी शिलाओं को फांदती (और कोई रास्ता नहीं था) जा रही थी तभी मेरा पैर फिसला और मैं मुंह के बल पानी में गिर गयी। सबसे पहले मैंने शिला को जकड़ लिया ताकि कहीं बह न जाऊँ! मेरे गल्ब्ज़ हाथ से निकल कर बह गए। घबराहट में एक पल को मुझे लगा कि मेरे हाथ और घुटने बिलकुल टूट गए पर दूसरे ही पल मैं उठ बैठ गयी ताकि जान सकूं कि बची या गयी काम से:-) पर भोले की कृपा से हड्डी बच गयीं थीं।
दो तीन मिनट मैं वहीं बैठी रही। पीछे से बालाजी, चैतन्य और कई यात्री आ रहे थे मुझे बैठा देख एकदम मेरे पास आकर हाल पूछने लगे मेरी हथेली और घुटने छिल गए थे पर मैंने किसी को बताया नहीं। मैं खड़े होकर चलकर देखना चाहती थी कि सही सलामत हूं कि नहीं सो उनके साथ खड़ी हो गयी।
आगे रास्ता बहुत स्लीपरी था। चैतन्य मेरा हाथ पकड़कर बार-बार ’आंटी ठीक हो न?’ पूंछता आगे-आगे ले जाता रहा। मैं गिरने की दहशत दे थोड़ी सी घबरायी हुयी थी। घुटनों में हल्का दर्द तो महसूस कर रही थी पर चलने में कोई बहुत परेशानी नहीं हो रही थी। जब आगे आकर रास्ता थोड़ा ठीक आ गया तो मैंने चैतन्य से अपने आप चलने के लिए कहा, उसने कई बार कहने पर मेरा हाथ छोड़ा। बच्चा बहुत ही सेवा-भाव वाला था।
मैं धीरे-धीरे चलती वापिस हो रही थी। कई यात्री आगे निकल गए थे। लगभग सात बजे मैं वापिस अपने कमरे पर आगयी। नलिनाबेन, श्रीमति और उसके पति पहले पहुँचकर मुंह ढककर सो रहे थे। स्नेहलता बाहर घूम रहीं थीं और वीनामैसूर मेरे बरबर पलंग पर लेटी हुयीं थीं।
मेरे पलंग पर बिस्तर नहीं था क्योंकि जाते सम्य मैं धूप में सुखा गयी थी। मैं बाहर से रजाई-गद्दा उठाकर लाई बिछाया और किसी को भी अपने गिरने के बारे में बिना बताए चुपचाप लेट गयी।
आधे घंटे बाद कुक चाय दे गया मैंने अपने बैग से कुछ भुने चने निकाले और खा लिए। उसके बाद दर्द-नाशक दवाई लेकार चुपचप सो गयी।
रात को स्नेह और नलिना मेरे लिए खाना कमरे में ही ले आयीं और खाने की ज़िद्द करने लगीं , मैंने उनका मान करते हुए एक रोटी खा ली। मुझे बुख़ार सा फ़ील हो रहा था। मैं आराम करना चाहती थी क्योंकि अगले दिन परिक्रमा का सबसे ऊंचा और कठिनतम भाग था जहाँ बहुत कम तीर्थ-यात्री जा पाते हैं, मैं उसे पूरा करने का भाव लेकर भोले-शिव से प्राथना करके सो गयी।