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मानसरोवर-परिक्रमा

मई 20, 2011

21/6/2010 (अट्ठारहवाँ दिन)
दार्चेन से कुगु फरहंध
(१२०किमी)
मानस के किनारे प्रथम दिन
सुबह साढ़े पाँच बजे आँख खुली, खिड़की से हल्की-हल्की रोशनी आ रही थी। मैं उठकर कैमरा लेकर बाहर आगयी। दूर पश्चिम में दर्शन दे रहे हिम-मंडीत धवल कैलाश-धाम को प्रणाम किया कुछ फोटो लिए और इधर-उधर टहलने लगी। कई यात्री टहल रहे थे सभी से ’ऊँ नमः शिवाय’ कहा, हालचाल पूछा और कमरे में आगयी।
कमरे में लगेज ठीक किया और अहाते में खड़ी बस के पास रख दिया। लगेज कमेटी हरकत में थी।
दैनिकचर्या से निपटकर हाथ-मुंह धोकर वस्त्र बदलकर रसोई मे चाय नाश्ता लेने चली गयी। नाश्ते में उपमा बना था थोड़ा सा नाश्ता किया, चाय पी और कमरे में आकर सहयात्रियों के साथ बैठ गयी।
वरांडे में हलचल थी। कोई लगेज ले जा रहा था तो कोई लगेज बांध रहा था। हम बाहर वरांडे में ही आगए और एक दूसरे की सहायता करने लगे।
सात बजे एलओ की सीटी बजगयी। सभी उनके पास अहाते में उपस्थित हो गए। ग्रुपलीडर्स ने गिनती की और सभी बस में बैठ गए।
यात्रियों के चेहरे उनकी प्रसन्न्ता बयान कर रहे थे। प्रकाशवीर ने जयकारे लगवाए। सभी ने दुगुने उत्साह से जय-जयकार किया और भोले का आभार! जो उन्होंने हमें अपने धाम बुलाया!
बस चलते हुए दारचेन से निकलकर गाँव मैदान और पठार पार करती विशाल मानसरोवर के किनारे-किनारे बनी पक्की सड़क पर दौड़ रही थी। हम बस की खिड़की से मानस सरोवर को निहार रहे थे। कभी पास लगती तो कभी दूर! झील के पार कैलाश-पर्वत भी साथ-साथ दर्शन दे रहे थे।
कई जगह रास्ते में सड़क-निर्माण हो रहा था। चीनी और तिब्बती मज़दूर काम करते दिखायी दिए।
लगभग सवा ग्यारह बजे मानसरोवर के किनारे बने कुगु के गेस्टहाऊस के प्रांगण में बस रुकी। सभी शीघ्रता से नीचे उतर आए।
गेस्टहाऊस में दो ओर आमने-सामने पंक्तिबद्ध कमरे बने थे। सभी के दरवाजे प्रांगण में खुलते थे पर एक पंक्ति की खिड़कियाँ मानसरोवर की ओर खुलती थीं तो दूसरी पंक्ति की मान्धाता पर्वत की ओर।
अन्य दो साइड्स में एक ओर दरवाज़ा बना था मोनेस्ट्री की ओर, तो दूसरी ओर खुला क्षेत्र था, उसी ओर दो टॉयलेट बने थे। दोनों ओर से मानसरोवर झील के किनारे तक पहुँचा जा सकता था।
एलओ ने कमरे और सहयात्री बताए। मैं, स्नेहलता और त्यागी दंपत्ती मान्धाता पर्वत वाली साइड के कमरे में ठहरे।
कमरा बहुत बड़ा था। साफ़-सुथरा और सज्जित। दरवाज़े के बिलकुल सामने पूरी दीवार की चौड़ाई में बड़ी खिड़की जिसपर कँच के डबल दरवाज़े थे।
मौसम साफ़ था। धूप खिली थी सो पहले यात्रा पर आ चुके यात्रियों से सलाह करके एलओ ने निश्चय किया कि मानस में डुबकी उसी दिन लगा ली जाए क्योंकि अगले दिन मौसम अनुकूल हो या न हो। सभी प्रसन्न्ता से चिल्ला उठे! यही तो सब चाहते थे।
एक पल भी बिना गंवाए अपना लगेज कमरे में रखा, आवश्यक सामान निकाला और खुले क्षेत्र की ओर से मानस की ओर चले गए।
स्त्रियों और पुरुषों के स्नान हेतु अलग-अलग स्थान निर्धारित किए गये थे मैं, स्मिताबेन, गीताबेन, नलिनाबेन और हेमलता एक किमी चलकर बताए हुए स्थान पर जाकर रुक गए। हमारे से कुछ पीछे ज्योत्सना शर्मा, रश्मि खंडूरीऔर रश्मि शर्मा भी पहुँच गयीं। इतनी पास से मानस !!! अनेक झील देखीं हैं पर यह दिव्य झील मानो नीलमणि पिघलकर बह रही हो!!! कहते हैं ब्रह्मा ने देवताओं के लिए इसे रचा! स्वच्छ जल! आकाश जिसमें डूबता सा लगता था लहरें मानों अनुशासन में नापकर दूरी तय करती हों और सामने भव्य कैलाश का दर्शन! क्या कहें लिखते में भी रोमांच होता है!
देखने में ही इतने खो गए कि स्नान याद ही नहीं रहा। तब ज्योत्सना ने स्नान करने को कहा। हम सामान का बैग दूर किनारे पर सूखे में रखकर (क्योंकि लहरों के आने से बहुत दूर तक किनारे का क्षेत्र गीला था।) बेंत लेकर आगे गए। पहले झुककर नमस्कार किया और पिघली बर्फ़ से ठंडे जल को दोनों हाथों में लेकर मस्तक से लगाया। स्वच्छ जल के नीचे तलहटी साफ़ नज़र आ रही थी।
जैसे ही जल में जाने के लिए पैर आगे बढ़ाए नीचे बैठी गाद पानी पर आगयी और जल मटमैला सा हो गया। गहरायी दिखायी देनी बंद हो गयी।
कुछ सहयात्री वहीं बैठकर हाथ से जल लेकर शरीर गीला करने लगीं पर हम- स्मिताबेन, नलिनाबेन और स्नेहलता बेंत के सहारे झील के अंदर थोड़ा आगे तक गए, बैठकर सिर तक कई डुबकी लगायीं। कैलाश-पर्वत की ओर मुंह करके अर्घ्य दिया और शिवशंकर से प्रार्थना की।
तेज धूप में भी ठंड लग रही थी सो जल्दी ही वापिस आगए। गेस्टहाऊस पहुँचने पर अशोककुमार जी ने बताया -’हवन भी अभी होना है, सामग्री लेकर पीछे निर्धारित स्थान पर पहुँचो।’
हम सब अपने साथ लाए पूजा की सामग्री लेकर पीछे मोनेस्ट्री की ओर मानसरोवर के किनारे चबूतरे पर बने हवन-कुंड की ओर चले गए।
वहाँ अशोककुमार और कई यात्री हवन की बेदी तैयार कर रहे थे। स्मरण रहे दिल्ली में प्रायवेट संस्था ने मेडिसिन के साथ-साथ पाँच किलो पूजा-सामग्री भी हमारे दल को उपहार में दी थी।
हम भी उनके साथ सामग्री तैयार कराने में जुट गए। धीरे-धीरे करके सभी यात्री वहाँ पहुँच गए।
मानस के तट पर सम्मुख दृष्टिगोचर कैलाश-धाम की ओर मुख करके एक साथ सभी ने मंत्रोच्चार के बीच सभी देवताओं के नाम लेकर १०८ आहूतियाँ दीं। गौरीशंकर और गणेशजी की आरती की गयी। अपने साथ लाए पंच मेवा के प्रसाद का भोग लगाया और यज्ञ-अग्नि को मानस के जल से ठंडा करके प्रभु को धन्यवाद किया जो उन्होंने हमें बड़भागी बनाया इतने पवित्र-स्थान पर पहुँचने का! सभी ने यज्ञ की राख को अपने मस्तक पर लगाया, दंडवत किया और अपनी अनजान त्रुटियों के लिए क्षमा-याचना की।। इसतरह प्रथम दिन देव-सरोवर पर पूजा संपन्न हुयी।
कुछ यात्री चबूतरे से उतरकर नीचे रेत में चले गए तो कुछ (जिनकी ड्यूटी थी) भोजन का प्रबंध करने चले गए। मैं और स्नेहलता चबूतरे पर मौन बैठे आकाश के रंग के साथ मानस के बदलते रुप को निहारते रहे।
थोड़ी देर में कुक सभी को खाना खाने के लिए बुलाने आया। निलय बनर्जी ग्रुप ने दाल-रोटी, सब्जी, चावल और खीर बनवायी थी। खुले आंगन में धूप में खाना – गर्म-गर्म रोटी! और भाव से परोसी जा रहीं थी सभी ने स्वादानंद उठाया।
भोजन के पश्चात आधे घंटे आराम करके हम पास में ही बनी मोनेस्ट्री में चले गए। बाहर से बिलकुल साधारण सी लगने वाली लकड़ी से निर्मित दुमंजिला मोनेस्ट्री अंदर से बहुत भव्य थी। सामने ध्यान-कक्ष में स्वर्ण-मूर्तियाँ विराजित थीं। एक दीपक जल रहा था। विलक्षण शांति पसरी हुई थी। कुछ देर आँखें बंद करके मन एकाग्र किया और ध्यान लगाया।
बाहर आकर दूसरी मंजिल पर गए जहाँ लामा लोगों का निवास स्थान था। वहाँ एक सेटेलाइट फोन भी था पर वह निश्चित समय पर ही चालू किया जाता था सो हम नीचे उतर आए।
शाम होते ही शीत-लहर सी फैल गयी थी। हम ठीक महसूस नहीं कर रहे थे सो अपने कमरे में आगए और रजाई में दुबक गए। कमरे में ही चाय आगयी।
रात का भोजन रश्मिखंडूरी ग्रुप ने तैयार कराया। आइटीबीपी के कमा.इन चीफ़ ने हमें उपहारस्वरुप उबले आलू का पाऊडर दिया था। रश्मि ने उसी को मिलाकर आलू के परांठे बनवाए थे। हमारी तबियत ठीक न होने के कारण हमने रात का खाना नहीं खाया और नहीं एलओ की मीटिंग में गए बस आराम करते रहे।
रात को स्नेहलता ने बताया कि गुरु ने बस को मोनेस्ट्री के पास मानस के तट पर खड़ा करा दिया था ताकि तीर्थयात्री रात में ठंड से बचते हुए बस मेम बैठकर ब्रह्मसरोवर में स्नान हेतु उतरते देवगणों के दर्शन कर सकें।
मैंने स्नेहलता से रात को बस में बैठने जाने के लिए जगाने को मना कर दिया और अपने बिस्तर में ही सोती रही। आगे अभी दो दिन और मानसरोवर के सानिध्य में रहना था।
क्रमशः